पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/९५

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३. विष्णुपदा, जङ्ग-तनया, सुरानमागा, भागीरथा, त्रिपथगा, इच्छा ( अभिप्राय ) प्रगट को। भगोरथका यह अभि- त्रिसोता:, भ मसू, अव तोथ, तीथगज, त्रिदशदोघिका, प्राय था कि गङ्गाजोको पृथ्वी पर लानसे उनके पूवपुरुष कुमारसू, मरिहरा, सिद्धापगा, स्वर्गापगा, स्वापगा, ऋषि- | मोक्ष पा जायें । ब्रह्माकं स्वीकृत होत भी वे अपनो कठोर कल्प, हैमवतो, स्वर्वापो, हरग्विरा, सुरापगा, धर्म द्रवी, तपस्वामें लगे रह ।राजा भगीरथने सोचा. जब गड्ना स्वगमो सुधा, जङ्गकन्या, गान्दिनी, कद्रशेखरा, नन्दिनी, पृथ्वी पर आगो तो यह निथय है कि उनका भार पृथ्वी अलकनन्दा, मितसिन्ध, अध्वगा, उग्रशवरा, मिडमिन्ध, मह न मकेगी। इमलिये गङ्गाधारणको महादेवको तपस्य, खगमरिहरा, मन्द किनी, जानव', पुन्या, ममुद्रसुभगा करनी पड़ी। शिवजोको मन्तुष्ट करनम उन्हें अधिक खनदा, सुरदोर्घिका, सुरनदो, स्वरधुनो, ज्यं ठा, जन परिश्रम न पड़ा। एक वर्ष के भोतरहो शिवजी उनकी सुता, भापजननी, शुभ्रा, शलन्द्रजा, अर भवायना। तपस्य से संतुष्ट होकर वर देनेक लिये उपस्थित हए । वद्यक राजनिघगट के मतम इमका जल शोतल, स्वादिष्ट, तब भगोरथन अपना अभिप्राय प्रगट किया और शिव- स्वच्छ, अत्यन्त कचिकर, पथ्य, पवित्र, पापनाशक, तृष्णा जीन गङ्गाको अपने ऊपर धारण करनका भार ले लिया। ओर मोहनाशक, दोपन एवं प्रज्ञाडिकारो है। गङ्गाजीन मोचा कि यह अच्छा हो हवा । इम ममय गङ्गा अत्यन्त प्राचीन पुण्यमलिला नदो है। हिन्दुओं- | महादेवजी मर हाथमें आ जायगे। क्या कि मैं इतन का एमा दृढ. विश्वास है कि पृथ्वा मवतोमि गङ्गा हो। जोरसे स्वग में गिरगो कि पृथ्वी केदन करतो हई शिव- प्रधान है। गङ्गाम मृत्य होनस मनुष्यजातिसे लेकर जोक साथ पातालमें प्रवेश कर जाऊंगो। महादेवजी निकष्टजाति कोट, पतङ्ग तक भो मोक्ष लाभ करते हैं। गङ्गाको आन्तरिक इच्छाको जान कर पहलेहोसे मचेत (सावेद १.०५५), कात्यायन, यौतमूत्र, शतपथ, ब्राह्मग्म हो गये। यथाममय गङ्गाजी स्वग़मे शिवजोके मस्तक प्रभृति प्राचीन ग्रन्याम गङ्गा नाम है । पुराण, उपपुराण, पर पतित हुई । शिवजीक अमाधारण कौशनमे उनकी इतिहास, इन मव प्राचीन पुस्तकाम गङ्गाको थोड़ी धारा जटाके मध्यहीम रुक गई, किमी प्रकार वाहर न बहुत कथा लिखी हुई है। वाल्मीकि रामायणके जा मको ! भगीरथ गङ्गाजीको न देख कर पुन: तपस्या गङ्ग. हिमालयको कन्या हैं। समझतनया मनोरमा करने लगे । उनको तपस्यासे मंतुष्ट होकर गङ्गाको भूत- वा मनाक गभर्म इनको उत्पत्ति है। देवतानि पनिने काट दिया और पतिने छोड़ दिया और वह विन्दमरोवरम' गिर गई। किसो काय वशमे हिमालय पहाइकै निकट गङ्गाको विन्दसरोवरमें गिरनसे गङ्गाको मात धारायें हो गई यथा भिक्षाकर लिया है ।* तभोसे यह ब्रह्माकं कमण्डलुम हादिनो, पावनी और नलिनी ये तीनों पूर्व ओर, वंतु, रहने लगीं। इधर सगर-राजाके दुष्कर्मी पुत्र कपिल सीता और सिन्धुदूमरो तीन पर्वत, ग्राम, वन, उपवनादि मुनिके शापसे भस्म हो जानकै कारण, सगर वंशक राजा | को बहती हुई पश्चिमको ओर और एक धारा भगोग्थ- पवित्र गङ्गाको पृथ्वी पर लानको चेष्टा करने लगे । किन्तु को बतलाई हई राहसे चला। इसी कारण इनका नाम सनको कितना हो चेष्टायें निष्फल हुई। बहुत दिनक | भागोरथो पड़ा। भागोरथोक ममुद्र में जा करके गिरनेसे बाद सगरवंशज राजा भगोरथ अपने मत्रियोंक ऊपर भस्मीभूत मगर ल के पवित्र होकर स्वग को सिधारे । राज्यका भार अर्पल कर पहले पहल ब्रह्माको तपस्या भगोरथको इच्छा पूरो हई । ( रामायण ॥८० ४२ ४१, ४४ सर्ग) करने लगे। उनको कठोर तपस्याके हजार वर्षकै बाद गङ्ग का दूमरा नाम विष्णुपदी है । इसो नाम अथवा ब्रह्माजो संतुष्ट हुए। ब्रह्माजो सब देवताओंको साथ | दूसरेहो किमो कारणसे हो, बहुतांका विश्वास है कि लेकर राजा भगीरथक निकट पह'चे। भगोरथने अपनी गङ्गा वैकुण्ठवामो भगवान् विष्णुक पदसे उत्पन्न हुई है। किन्त विष्णापुराणक पाठ करनेसे ऐसा माल म पडता है •निवासी रामायण मसमें देवगण शिवक साब याने लिये | महाको गये। पावापी मैनवाल महाबीनदेखनसमयीमकामा देवीभागवत मत गहाको पार करने के लिये वसुधन महत दिया। देबको चाराधना की। Vol. V1.24.