पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/२५१

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महाराष्ट्र -' जब तक यह अद्वैतवादमूलक गनिप्रधान असाम्प्र. राष्ट्रवासीका निताप दूर करने में सहायता पहुंचाई। दायिक भागवत-धर्म संस्कृत भाषामें रचित प्रन्यों में ही किन्नु कुछ दिनके लिये अर्थात् ढाई सौ वर्ष तक मुमल- आवद्ध रहा, तब तक सर्वसाधारणने इसका कोई अमृत- मानों के कठोर शासनचझसे जज रित हो कर महाराष्ट्र • मय सुफल नहीं पाया। १२वीं और १३वीं शताब्दीमें | देशसे आर्यधर्म और आय विद्या चिलुम सी हो गई तथा • मादि कवि मुकुन्दराज, ज्ञानेश्वर और नामदेव आदि | अधिवासियों का जातीय जीवन निष्क्रान्त हो गया। प्रसिद्ध साधु पुरुषोंने स्वदेशोय आपामर लोगों के बीच इस दुःसमयमें एकनाथस्यामी, मुफ्तेश्वर, दासोपन्त,

उदार भागवत धर्म का प्रचार करनेका थोड़ा उठाया। भानन्दतनय, वामनस्वामी, रघुनाथस्यामी, गङ्गाधर

इससे महाराष्ट्रदेशमें मानो नवजोबनका वीज बोया गया। पात्रा, केशवस्वामी, रङ्गनाथस्वामी, मोरयादव, जयराम- सबसे पहले मराठी भाषामें मुकुन्दराजने विवेकसिन्धु । स्थामी, तुकाराम और रामदास आदि उदार चरितवाले और परमामृत नामक ग्रंथ लिख कर ब्रह्म, माया, धर्मोपदेशक कविगण आविर्भूत हो कर महाराष्ट्र-समाज जीवात्मा, परमात्मा तथा मुक्तिके चारों प्रकारके भेद | और साहित्यका जो अशेष उपकार कर गये हैं, यह इति- का विषयः जिससे देवमापानभिज्ञ लोग जान सके। हासमें सुवर्णाक्षरमे लिख रखने के योग्य है। उसका प्रबन्ध कर दिया। इस काम, ज्ञानेश्वरने बहुत वे लोग अपने अपने सुखदुःखके प्रति जरा भी कुछ मदद पहुंचाई धी। हानेश्वरने भी भ्रातृत्ववृत्तिबोध, ख्याल न कर गांव गांवम धूमने और भागवत-धर्म का • सोपानमार्ग, अमृतानुभव, अनुगीताको टोका आदि लिख) अर्थ समझा कर लोगों का अशानान्धकार दूर करने कर मानवजीयनका अति महत् उद्देश्य क्या है, यह स्व लगे। स्वधर्मालोचनाविमुख, परधर्मावलम्यनप्रयासी, देश-वासियोंको समझाया। ये लोग आचण्डाल आदिके । विपन्न जातिको स्वधर्म का सुगमपंथ दिखला कर और घोच ब्रह्मशान वितरण करते थे। ज्ञानेश्वरने जो भावार्थ- प्रेमभक्तिकी शिक्षा दे कर वे लोग शुष्क प्राणमें अमुत दीपिका नामक श्रीमद्भगवद्गीताको टोका लिखी है। सोचने लगे। इधर विधी शासक-सम्प्रदायका निर्या यह बहुत लचो चौड़ा है। यही टाका भक्तिमूलक अद्वैत- तन और उदार देवभाषाके पक्षपातो कुसंस्कारपरायण, . मत प्रचार करनेका मूल है। १६या शताम्दोमें इस | शुष्ककम काण्डके उपासक ब्राह्मण पण्डितों के विराग झानेश्वरीका पुनः प्रचार करके हो एकनाथस्वामी अपने | और सामाजिक उत्पीडनको सहन करते हुए उन्होंने देशमें धर्म भापको जगानेमें समर्थ हुए थे। वणिक-पुत्र स्वदेशवासाके कल्याण के लिये कोई कसर उठा न रमा। तुफा: ज्ञानेश्वरका प्रथ पढ़ कर 'तुकाराम वावा' नामसे | पीछे उन्होंने विविध अध्यात्म प्रथों की रचना कर तमाम पूजे जाने लगे। यह प्रथ महाराष्ट्रवासोको | जातोय साहित्यके पुष्टियन मीर महाराष्ट्र जातिके मात्मशक्तिके प्रति निर्भर रहने और मराठो मायाक प्रति अमरता-लामका उपाय निकाला। प्राचीन ग्रीक भार अनुराग दिखलाने के लिये शिक्षा देता है। नामदेयको लाटिन भाषासे अगरेजी भादि प्रचलित भाषा पाइकिल कवितावली भी इन सब समाया के परिपोषणमे सहा- आदि धर्म नधो का अनुवाद हो जानेसं १६वीं शताब्दी में यता करती है। किन्तु आदि कयियों के इन सब प्रथों यूरोप में जिस प्रकार देशव्यापी धर्मान्दोलनने समस्त का 'महाराष्ट्र-समाजम मवार होनेसे पहले हो-उन | पाश्चात्य जातिको मोहनिद्रा तोड़ो थी और उन्नतिका .लोगों का दोया हुभा दाज अंकुरनेसे पहले ही, उत्तर पथ परिष्कार किया था, महाराष्ट्रद शमें भी उसी प्रकार दिशासे : मुसलमानो आक्रमणको वल तरङ्गमाला एकनाथ, मुफ्तेश्वर आदिके यतसे रामायण, महा- महाराष्ट्रवेशमें उमड़ आई । इससे आदि कवियों का भारत, एकादशस्कन्ध भागवत और श्रीमद्भगवद्गीता सुमहान् उद्देश सिद्ध होने में भारी धक्का पहुंचा। इतना | आदि प्रथों का सरल भाषा अनुवाद होनेसे उसे । होने पर भी उनका दोया हुआ पोज नष्ट नहीं हुआ। पढ़ कर मरहठों की स्वधर्म प्रीति बहुत कुछ बढ़ .परन सैकड़ों शाखा-प्रशालाओं में निकल कर उसने महा- गई। साधुपुरुषों की कथकता, संकीर्तन और धर्मोप.