पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/२७१

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महाराष्ट्र वैद्यक प्रभृति . विविध शास्त्रों में विद्वान् ब्राह्मणों को | मरइठोंने जो जानसे कोशिश को श्री । यहां तक कि वे .: परीक्षा प्रति घप लेते और उनको पुरस्कृत करनेका भो। मुसलमानोंको उक्त क्षेत्रोंके बदले में कुछ निज अधिकृत आयोजन करते थे। इसके उपलक्ष वा प्रति धर्म २६ / देश भी देनेको तैयार हो गये थे। किन्तु दुर्भाग्यवशता लाख रुपये तक खर्च कर देते थे। काशी, रामेश्यर, मिथिला कई कारणोंसे उनकी चेष्टा फलवनी न हुई। फिर मी मादि बहुत दूर दूरके विद्यार्थी पुरस्कार पानेकी लालचसे प्रत्येक हिन्दू-संतानको उनके उधमकी सा अवश्य पूनाको परीक्षामें प्रतिवर्ष सम्मिलित होते थे। समागत करनी चाहिये। ऐसा पवित्र उद्यम 'हिन्दुसूर्य उगघि- 'ब्राह्मणों को परीक्षा लेने और पुरस्कार वितरण करनेके धारी राणा लोगोंने भी कमी नहीं दिपलाया था। लिये एक अलग आलय बनाया गया था। पुरस्कारके लोभ १७५०से १७६१ ई० तक मरहठों मे अपने संकल्पको से देश में ब्राह्मण सन्तानों ने शास्त्रज्ञान-लाममें मनोनिवेश कार्यमें परिणत करनेके लिये प्राणपणसे चेष्टा की थी। किया था। क्रमशः प्रतिवर्ष पूनामें ३०.४० सहस्र विद्वान् । उनकी चेष्टा बहुत कुछ सफल भी हुई थी। उन लोगों . ब्राह्मणों का समावेश हुमा करता था। देशमें शास्त्र | के अध्ययसाय और उद्यांक्षाको ओर ध्यान देनेसे विस्मित चर्चाका स्रोत वेगसे प्रवाहित होने लगा। कवि, शिल्पो, होना पड़ता है। बालाजीके चचेरे भाई श्रीमन्त भाउ- _ निलकार और गीतयाधविशारद व्यक्ति भी राजाश्रय | साहदने समुद्रपलयाङ्किता भारतभूमिको पार कर कुस. लामसे यशित नहीं होते थे। देशके कृषिवाणिज्यकी ! तुसतुनियामें महाराष्ट्र-विजयपताका फहरानेकी इच्छा उन्नतिको और भी बालाजी पाजी रावकी विशेष प्रकट की थी। पानीपतको लडाईमें महादशाह अब. दष्टि थी। दालोके साथ वलपरीक्षामें यदि मरहठों के भाग्यने पलटा पहले दस वर्षके भीतर महाराष्ट्रराज्यकी भोतरो न खाता तथा परवती देवविडम्बना उन पर टूट न शासनला और महाराष्ट्रशक्तिको दबाकरको थालाजो पहतो, तो भावसाहवका अभिलाप पूर्ण होना असम्भव का हिन्दूसाम्राज्य स्थापनका जो सुमहान संकल्प था। न था। उसे घे कार्य में परिणत करने के लिये तामसे लग गपे। बालीजी वाजीरावके यनसे भारतवर्ष मरहठों का मरहठोंने पालाजो जैसे राजनीति-कुशल शासनफर्या चक्रवर्तित्व सर्वत्र स्वीकृत हुआ था। पाय, अजमीर, और सुदक्ष सेनानायक पा कर मापनी अलौकिक क्षमता : मालव, नागपुर, येरार (विदर्भ), महाराष्ट्र कर्णाट और से सारे संसारको कंपा दिया था। बालाजीके उप- ! गुजरात आदि प्रदेशो में उनका माधिपत्य बद्धमूल हो देशानुसार १७५० ई. तक ग्यारह वर्ष के भीतर उन ! गया था। घट्नाल, राजपूताना और अन्यान्य छोटे छोटे inलोगोंने कमसे कम ४२ वार युद्धयाना की थी। प्रायः , राज्यों से नियमितरूपमें उन्हें चौध मिलता था। महि- , समी याताओं में वालाजो उन लोगोंके साथ थे। सुर, हैदराबाद, मारवाद और अयोध्यादि प्रदेशों के राजा

अयोध्या, विहार और याददेशसे मुसलमानो शासनको । उन्हें कर देते थे। दिल्लीके सिंहासन पर मरहठों ने
जड़ उखाड, कर उत्तरमें मटफसे दक्षिणमे रामेश्वर तक। अपने पसन्दके आदमीको वादशाहके रूपमें स्थापित

आसमुद्र-दिमाचलव्यापी 'हिन्दूपत् बादशाहो' (हिन्दू- कर अपने हाथका खिलौना बना लिया था। भारत में ५ साम्राज्य ) स्थापन करने के लिये महाराष्ट्रगण यडे. ध्यप्र भव उनके एक भी भौतिमद शन्न न रह गया। महाराष्ट्र- हो गये थे। .यहो.कारण था, कि उन्होंने दक्षिण और | साम्राज्यमें तमाम मानो शान्तिदेयोका राज्य था। यह .उत्तर-भारतवर्ष के हिन्दू-राजाओंके विरुद्ध कभी भी युद्ध-] प्रान्ति यदि फुछ दिन अक्षुण्ण रहती, तो देशके अन्त. .याता नहीं की केवल उन्हें उसपतिका सार्पसौमत्य ! र्धाणिज्य और यहिर्याणिज्य विस्तार तथा कलाविद्याके

स्वीकारने और कर देनेके लिये पाध्य किया I विशिष्ट संस्कारको भोर मरहठों का ध्यान दौड़ता, इसमें

मुसलमानोंके हाथसे मुक्तिपुरी अयोध्या, श्रीक्षेत्र, पारा- सन्देह नहीं। किंतु दैयविडम्यनासे उनको मामा पर पसी और पचित प्रयागक्षेत्रका उद्धार करनेके लिपे पानी फिर गया। Vol. XVII, 61