पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/४४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पानप्राण-मानभाव ३६१ ....,२,उक्त परगनेका एक शहर । यह अक्षा० २२.२६ । मुकुटके शिर परसे अलग होते ही कृष्णभट्टकी कृष्णमूर्ति "उ०.तथा देशा० ७५' ४० पू० इन्दोरसे २४ मोलकी दूरी भी बदल गई। राजा रामचन्द्रदेवके आदेशसे कृष्ण पर अवस्थित है । जनसंख्या १७४८ है। जयपुरके राजा निर्वासित हुए। किन्तु मानभाव लोग इस बातको .मानसिंहने इस नगरको वसाया, इसोसे यह नाम पड़ा अस्वीकार करते हैं। वे कहते हैं,कि वलराम कृष्णवस्त्र है।: भील लोग यहाँके प्रधान अधिवासी हैं। शहरमें पहना करते थे, इसलिये ये लोग भी कृष्णवस्त्र .एक डाकघर, एक स्कूल, अस्पताल और डाकबंगला है। पहनते हैं। मानप्राण (सं० वि०) मानजीवन, जिसका मान ही प्राण उक्त प्रवादके अनुसार राजा रामचन्द्रके समयमें अर्थात् मायः ७२० वर्ष पहले मानभावको उत्पत्ति स्वीकार मानभङ्ग (सं० पु०) मानस्य भङ्गः। मानहानि, मान करनी होगी। मर्दन। ___ मानभाव दो प्रकारका है-घरयासी और वैरागी। मानभाएड (सं० लो० ) परिमाणभाण्ड । फिर घरवासीके भी दो भेद हैं-गृहस्थ और भोले। मानमाव (सपु०) चोचला, नसरा। गृहस्थ स. संसारी गानभाव जातपातका विचार नहीं मानभाव (महानुभाव शब्दका अपभ्रश )-वम्बई प्रदेश- करते, किन्तु भोले मानभाव नामसे परिचित होने पर भी 'वासी वैष्णव-सम्प्रदायविशेष । इस सम्प्रदायको उत्पत्ति- अपने अपने जातिधर्मका पालन कर चलते हैं। अन्त्यज्ञ- के सम्बन्ध दो मत प्रचलित हैं। सताराके मानभावों को छोड़ कर सभी हिन्दू मानभाव हो सकते हैं। वैरागी का कहना है, कि पांच सौ यप पहले एक धर्मपरायणके मानभावमें खो और पुरुष दोनों हो है । दोनों ही मस्तक 'मुनीन्द्र और दिवाकर नामक दो शिष्य थे । मुनोन्द्र मांस मुंडाते हैं। ये विवाह नहीं कर सकते, मन्दिरमें अधया खाता था, इस कारण भट्टाचार्य नामक दिवाकरके एक नाना स्थानामि घूम कर अपना समय विताते हैं। वैरा- शिष्यके साथ उसका झगड़ा हो गया। भट्टाचार्यने । गियोंमें पुरुष गुरु वा महन्तसे और स्त्री स्त्री-गुरुसे दीक्षित मुनीन्द्रका साथ छोड़ दिया, यह सुन कर उस सम्प्र होती है। वैरागी अथवा वैरागिनीमें कोई संम्रय नहीं' दायक बहुतसे लोग भट्टाचार्य दलमें मिल गये। भद्दा रहता। यहां तक, कि ये एक दूसरेका मुख भो नहीं' चायने अपने पार्षदोंको गेरु यस छोड़ कर कृष्ण-वस्त्र देख सकते। वैरागिनोके मरने पर उसे समाधिस्य पहनने का आदेश किया और उन्हें 'महानुभाव' नामसे करनेका अधिकार भी वैरागीको नहीं है। सिर्फ वे पुकारने लगे। तभीसे यह सम्प्रदाय 'मानभाव' नामसे उसको शवदेह ले कर समाधिस्थानमें पहुंचा आते हैं। प्रसिद्ध हुआ। पीछे वैरागिनी उसके कपड़े उतार उत्तर मुख करके एक - रारमें एक दूसरा प्रवाद प्रचलित है,-कृष्णभट्ट ! बई गइमें गाढ़ देती हैं। जोपो नामक एक व्यक्ति इस सम्प्रदायके प्रवर्तक थे। वैरागीके गरने पर भी उसे निज श्रेणोके लोग दफ- तालमें उनकी अच्छी सिद्धि थी। चेतालने उन्हें एक नाते हैं। दफनानेके समय शवके ऊपर नमक छिड़क मुकुट दे कर फहा था, 'यह मुकुट सिर पर रखनेसे दिया जाता है। गृहस्थ लोग शवदाह करते हैं। दत्ता- कृष्ण हो सकते हो, किन्तु उस समय यदि मनको वृत्ति- त्रेय और कृष्ण इनके उपास्य देवता हैं। निजाम राज्य को न रोकोगे अर्थात् असन् आधरणका पक्ष लोगे, तो भुक्त माहुर ग्राममें जो दत्तात्रेय और कृष्णका मन्दिर है निश्चय ही विनाशको प्राप्त होगे ।' जो कुछ हो कृष्णभट्ट घही मानमार्योका सर्यप्रधान तीर्थस्थान है। भगवद्गीता वह मुकुट पा कर कृष्ण वन गये और वहुत-सी युवतियों उनका प्रधान धर्मग्रन्थ है। जिस जिस धर्मग्रन्थमें का सतित्व नाश करने लगे। उनके इस असत् आवरण दत्तात्रेय और कृष्णका माहात्म्य वर्णित है, उसी उसी अन्य- का व्यवहार देवगिरिक राजमन्त्रीको मालूम हो गया। का मानभाव-समाजमें विशेष भादर है। ये लोग दत्ता- उन्होंने कौशलसे कृष्णको पकड़ा और मुफुट छीन लिया। त्रेय और कृष्णको छोड़ कर और किसी भी देवदेवीको