..मार्जना--पारिगन्धा
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हामूचा शरीर पोंछ डाले | इसको गौण स्नान कहते हैं। हिन्दू शास्त्रशोका कहना है, कि नार्गनीरजः यानी
"अशिरस्कं भवेत् स्नानं स्नानाशक्ती नु कर्मिणाम् । झाड़ को धूल शरीरमें नहीं लगानी चाहिये। इससे
आद्रेण वामसा वापि मार्जनं दैदिकं विदुः॥ इन्द्रतुल्य व्यक्ति भी शीघ्र ही धोभ्रष्ट हो जाते हैं।
इति जावालवचनात् शिरो विहाय गावप्रतात्ननं तदशक्तौ । २ मध्यम स्वरकी चार श्रुतियों से अन्तिम श्रुति ।
.. सर्वगात्रमार्जन भाद्रेण वासना कर्यात् ॥"
'मानीय ( त्रि.) माज ने इति मृज-अनीयर । १
( आदिनातत्त्व ) स्नान देखो। मानयोगा, परिष्कार करने योग्य । २ अग्नि । ३
वैदिकसंध्या करनेके समय मन्त्र पढ़ कर मस्तक शोधन ।
और गात्रादि पर फुशपत्र द्वारा जल सिञ्चन करे ! इसको मार्जार (स० पु०) मृज (कझिमजिभ्यां चित् । उण ३१३७)
भो मार्जन कहते हैं। माजन द्वारा विशुद्धिता लाभ : इति आरचिन् 'मृजे शिः' इत्यर्ज लदत्तोत्तो द्विश्च ।
होती है, किन्तु इस वैदिक संध्याघासनान्तर्गत मार्जन १ रक्तचित्रक वृक्ष, लाल चोता पेड़ । २ पूनिसारिया,
द्वारा पापमल दूर और शरीर पवित्र होता है। इसीसे । वनविलाय। ३ जट्टास, पटाम । ४ विडाल, बिल्ली ।
प्रति दिन सन्ध्योपासनाके समय पहले ही माज न करने ! मार्जारको स्पर्श नही करना चाहिये, संयोगवश यदि
को कहा गया है - (पु०) माज्यतेऽनेनेति माजल्युट । स्पर्श हो जाय, तो स्नान कर लेना उचित है।
३ लोध्यक्ष, लोध। ४ श्वेत लोध, सफेद लोध। ५' "यभोज्यसीतकापरडमाजीराव्यश्वकुरकुरान् ।
... रक लोध्र, लाल लोध ।
पतितापविद्धचपटात मृतहारांश्च धर्म वित् ।
मार्जना (सं० स्त्री०) माज्यते इति मार्न भावे युच् संस्पृश्य शुध्यते स्नानादुदक्यानामशुकरी ॥"
टाएं। १ मार्जन, सफाई । २ मुरजध्वनि, मृदंगको योल।
(मार्कण्डेयपुराण)
३ शमा, माफो।
पारिमाषिक मार-जो फेवल भारफे लिए जप
मार्जनी (सं० स्त्री०) मार्जातेऽनयेति मार्ज करणे ल्युट तप करता है तथा जिमका कार्य पारमार्थिक नहीं है
'खिया डीए । सम्मानी, माई ।
उसको माजार कहते हैं। ऐसे व्यक्तिको विडाल नपाची
"नमामि शीतला देवीं रातभस्था दिगम्बरीम्। । कहते है। इसका अन्न अभोज्य है। अर्थात् विड़ाल-
मानी कलसोपेता शुनिष्कृत मस्तकाम् ॥" ' तपस्सीफा अन्न खानेसे पार होता है।
(गीतजास्तव)
"दम्मर्थ' जपते यश्च तप्यते यजने सथा।
न परमार्थ मुद्युक्तो मारिः परिकीर्तितः ॥
"शिरसो मार्जनं कुर्यात् मुशैः सोदकविन्दुभिः ।
अमोज्या: मतिकापरडमारियन कुक्कुट ॥"
प्रयायो भर्भुवः स्वश्च गायत्री च तृतीयिका ।।
(वामनपु० १५ भ०)
अवदैवत्यं त्र्यचञ्चय चतुर्थमिति माननम् ॥ मार्जारक (स० पु०) मार्जार (संज्ञायां कन् । पा ४।३।१४७०)
• उकारो भुरादिव्याद्दतित्रय तृतीया च गायत्री चतुर्य आपो हि इति फन् । २ मयूर, मोर । २ विडाल. विही ।
•ष्ठति ऋञ्य इतोदं मार्ज ने माजनक्रियाकरणमित्यर्थः। मार्जारकण्ठ (स'० पु०) मार्जारस्येच कण्ठः फगठस्वरो
गन्ते माननं कुर्यात् पादान्ते वा समाहितः । यस्य यद्वा मार्जारो मसृणः कण्ठो यस्य । मयूर, मोर।
भागो हि उपचा कार्य मानन्नु कुशोदकः॥ मार्जारकणिका (स० स्त्री०) मार्जारम्य कर्णों व कर्णी
प्रतिप्रयावसंयुक्त हिपेन्मुर्दिन पदे पदे ।
यस्या, स्त्रियां-सीए स्पायें कन् । वामुएटाका एक नाम ।
त्र्यचस्यान्वेऽथता कुर्याषीणां मतमोदृशम् ॥ मारिकणों (स० स्त्री०) मार्जारस्येय कायस्याः
आपो हि प्टेति मुक्तस्य सिन्धुद्वीपभृषिः स्मृतः । डीप् । चामुण्डाका एक नाम ।
भाषा बै देवता छन्दी गायत्री मान स्मृतम् ॥" | मार्जारगन्धा (मो .) मातारम्येय गन्धोऽस्या
( भानिातः
, वनमंग।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/५३५
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