पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/५७३

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. मानहायन-माला, मालहायन सं० पु०) एक गोत्रप्रवत्तक पिका नाम। माला हरिको निवेदन कर पीछे आप धारण करे । माला माला (सं० स्त्री०) माति मानहेतुर्भवतीति मा (अजेन्द्रा | धारण करनेके पहले पञ्चगण्य द्वारा उसे धो डाले। पीछे अवों । उण २।२८) इति रन्, रस्य लत्वं टाप च अथवा उसके ऊपर इष्ट मन्त्र और आठ बार गायत्री जप करे । मां शोमा लातीति ला-क-टाप् । १श्रेणी, पंक्ति । पर्याय- जप करने के बाद मालाको धूपित करके भक्ति-पूर्वक उप्स राजि, लेखा, तती, घोची, आलो, आवलि, पंक्ति धारणी ।। की पूजा करे। पूजाके बाद निम्नलिखित मन्त्र से प्रार्थना "विरेफमासा सविशेषसछा।" (कुमार १ स० ) करनी होती है। प्रार्थनाका मन्त्र इस प्रकार है,- २ मस्तकन्यस्त पुष्पदाम, गलेमें पहननेका फूलोंका "तुलसीकाठसम्भते माले कृष्णजनप्रिये । -हार, गजरा। पर्याय-मात्य, म्रक, मालिका, मालाका, विभर्मि त्वामह कपठे कुरु मा कृष्णलगम् । मालका, गुणनिका, गुणन्तिका। ययात्य मल्लमा विष्णोनित्य विष्णुजनप्रिया । मनधिगतपरिमालापि हि हरति दृश' मालतीमाना।" ' तथा मां कुरु देवेशि नित्य विष्णुजनप्रियम् ।। (साहित्यद०१० अ०) दाने माधातुपदिष्ट लासि मा हरिवालमे।. ३जपमाला । मन्त्रजप करनेके लिये मालाका व्यवहार भरतेभ्यश्व समस्तेभ्यस्तने माना निगद्यसे ।" किया जाता है। इस जपकी माला साधारणतः जा। इस प्रकार प्रार्थना करने के बाद विधिपूर्वक कृष्णके • माला कहलाती है। कामनाभेदसे जपमाला अनेक प्रकार गलेमें माला समर्पण करे पोछे आप पहने। जो वैष्णव की हो सकती है। इनमेंसे प्रधानतः तीन प्रकारको जग- इस नियासे माला धारण करते है उन्हें अन्त में विष्णु- मालाका हो व्यवहार देखने में आता है । यथा -करमाला,। लोकको प्राप्ति होती है। पैष्णयों को धालीफलफी माला वर्णमाला और अक्षमाला। इन तीनों प्रकारको जपमाला । अवश्य पहनी चाहिये। जो माला धारण नहीं करते, के भेद और जप क्रमादिका विवरण पहले ही लिया जा पर विगु पूमामें दमेशा रत रहते हैं उन्हें घेणय नहीं चुका है। अपमाला दैलो। कहा जा सकता। पुराणादि धर्मशास्त्रों में तुलसी, रुद्राक्ष आदिकी माला "धात्रीफलकता माछा करठस्या यो बहेन । पहननेको व्यवस्था है। विना माला पहने जप करने से वैष्णयो न स विशेयो पिप्णु पूजारतो यदि ॥" महापातक होता है। यहां तक कि उसे अभीष्ट देवको । ____स्कन्दपुराण, गीतमोय पुरश्चरणप्रसङ्ग तथा हरि- अप्रसनतासे नरक भी जाना पड़ता है। भक्तिविलास आदि प्रन्योंमें लिया है, कि जो तुलसी . धारयन्ति न ये मालो हेनुकाः पापयुद्धयः । और धात्रीफलको माला पहनते हैं उन्हें असेप पुण्य . नरकान निरर्तते दग्धाः कोपाग्निना हरेः ॥" (गरुहपु०) । होता है। अन्तमें उन्हें मोक्षको प्राप्ति होती है। " धात्रीफल, पाक्ष, तुलसीकाष्ठ वा तुलसीदल द्वारा ____ तुलसी मोर धातोको तरह सम्प्रदायभेदसे नदार- माला बना कर सबसे पहले श्रीकृष्णको चढ़ानी चाहिये। घेणय व्यक्ति अपने इच्छानुसार मस्तक, कान, दोनों माला पहननेको भी विधि है । लिङ्गपुराणमें यादा - भष्म, तिपुएड और द्राक्षमाला, ये सय मिना पहने याहु तथा दोनों हाथमें तुलसी काष्ठ-भूपण धारण करें।। शिवपूजा नहीं करनी चाहिये। "ततः कृष्णार्षिना माना धारयेन्तुलसीदनेः। . . पनादस्तुलसीका पर्यायाश्च "निर्मिता । विना भन्मत्रिपुपडेय चिना दान माया। धारयेत्त समीका-भपणानि च देष्यः । पूजितोऽपि महादेवो न स्यानस्यफमद लिन०) . मस्तके कर्णयोवाहो करयोश्च ययाचि ॥" (स्कन्द पु०) रुद्राक्षका उत्पत्ति विषय संवत्सर प्रदीपमें इस प्रकार - हरिकी यिना निवेदन किये माला धारण करनेसे लिखा है-त्रिपुरवाके समय की गांखाले ,आंसूझी ... फार फल नहीं होता, परन् उसे नरककी गति होती है। युदै जमीन पर गिरी धों, उन्हों सय युदीने गीछे दोश . पतपय पैष्णय व्यक्तिको चाहिये कि ये पहले तुलसी रूप धारण किया। ............. ___Vol. III. 12G .