पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/५९

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मस्तिष्क-पस्तो जीयन भरफे लिये नियोंघ और पापयशून्य हो जाता है। है। क्योंकि गुरुपाक भोजन देनेसे पाचनक्रिया में गढ़बड़ी इन दोनों तरहफे रोगों के प्रतिकारके लिये मस्तिष्कके होती है जिससे मस्तिष्क फिर विस्त हो सकता है। रफ्ताधिषयको कम करना चाहिये, जिससे मस्तिष्कमें नीयूका रस, सिहाड़ा, पके फल, मंगूर आदि मुशीतल अधिक रयतका सञ्चार न होने पाये। फल और जलवारली या इमलो और वारली पका कर पेसा करने के लिये रोगीको मयंदा निश्चेष्ट और , सानेको देना चाहिपे। लघु भोजन मात दी विशेष फल. • शान्तभावसे निर्जन स्थानमें रखना फत्तव्य है। पयोकि पद है। अधिक लोगों के साथ रहने से शब्दों के आघातप्रतिधात: इस रोगमें नाकसे खून बहना, शिरच्छेद (फस्त ' से चिन्तास्रोतके व्याघात या इन्द्रिय आदिको उत्तेजना., सोलयाना ) भोर रगमे जोक लगा कर रत युसयानेके से रोगके बढ़ जानेका भय रहता है। रोगोफे घरमे सिवा और कोई लाभप्रद भोपधि दिखाई नहीं देती। अधिक प्रकाशका रहना भी उचित नहीं। ऐसे रोगियो- शिरा और धमनियोंसे निरन्तर रक्तका गिरना असम्मय के लिये कुछ अन्यकारयुक्त तथा नातिशीतोष्ण स्थान है। इससे नाकसे सून गिरना ही उत्तम है। नाकके हो विशेष लाभप्रद है। किन्तु यदि मनफे मुताबिक छिद्रोमें कुछ घास पात हूंस देनेसे ही धीरे धोरे रक्त रोगीको मित्र मिल जाये, तो उसके मधुर प्रेमालापसे बहने लगता है। रोगीको मायमें जहां विशेष ट हो रोगीकी मानसिक दुर्यलताफा यहुस पुन्छ लाघय हो रहा है, उस जगहमें ओंक लगा दिया जाये, तो उससे सकता है। बिलकुल अधिकारपूर्ण स्थानमें अधिक | बड़ा उपकार होता है। समय तक रहनेसे रोगी पर विषादोन्मत्तता (s/clan. यदि उसको वयासीर हो, तो उससे निरन्तर जून • cholin ) का आक्रमण होता है। बहते रहनेसे भी लाभ होता है। यदि हो सके, तो उस रोगीकी इच्छाके विपरीत कोई काम करना उचित स्थानमें जौंक लगा है। यदि पयासोरका मशा भीतर। नहीं। यदि कभी रोगो फिसी असम्भय विषयको मय- की ओर हो, तो औषधि द्वारा पत्तीका प्रयोग करना सारणा करे अथवा किसी दुधाप्य या बहुमूल्य यस्तुको अथवा मधु मुसय्यर या घृतकुमारी और सैन्धव लपण प्राप्तिको कामना करे, तो उसे छलपूर्वक पातोंमें भुलया फर गिला कर लेप करना चाहिये। इसी तरह यदि रोगी सोपामोदसे उसके मनको सन्तुष्ट कर देना चाहिये। पयोंकि खी हो और उसका रजाम्राय बन्द हो गया हो, तो उसके मतकी विपरीतता होनेसे उसके प्रदाहको वृद्धि रजात्राप करानेका ययायिधि यत्म करना चाहिये । भीर मस्तिष्कको विकृति बढ़ जायेगी। इससे खराव फल उपस्थि हो सकता है। मूल बात है, कि जिसको यह रोगीफी कमी कपड़े से ढक कर मत रपना, ऐसा पार करे, फिर उसके शरीर स्वास्थ्य के लिये विशेष यत्न करना चाहिये, कि रोगी उएडी और साझी हामिक भी नहोऔर मर गीत लिनसकिसो हयामें सास छोड़ ओर ले मफे और अपने मस्तिष्क चित्त संयत कर मानसिक चिन्ताको प्रशमित कर सफे, फो शीतल र सके। गिर मुड्या कर उसमें मिनी. ऐसे ही विषयों में उसको संलग्न रहना चाहिये। गार भोर गुलावका जल मलना चाहिये, हम उण जल- द्वापर युमरदेडका कहना है कि किसी जलपूर्ण, से पैर धोते रहना चाहिये । पयोंकि, इससे मस्तिष्कका पानमै युन्द-युन्द करके जल टपकाये और उसकी संख्या प्रदाह कम होता है। उसो तरह रोटी और यकी गिनने लिये रोगीको कहे। ऐसा करनेसे रोगी चित्त । पुलटिस देनी चाहिये। यदि रोग इससे मी शान्त म को एकारता यधनेसे बनेर स्थटमें मुफल होता देखा हो, तो गरदनमें भोर मस्तको हिपर देना कर्तप्प है। गया है। इस तरह निम्न मधुरसुरलदरों में रोगोफे वित मस्ती (फा खो०) १ मत्तता, मतयालापन । २ भोगको लगा सफने पर रोगोको नौद भी आ सकती है। प्रवल कामना, प्रसङ्गको उत्कर पछा। २६ माय ऐसी अवघा रोगोको इन्का पथ्य देना ही उत्तम ! जो कुछ पिगिप्ट पक्षों अथवा पत्थरों भादिमे पिरोष .. . .