पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/५९४

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५२० मापक-पापभक्तवाल गुण-स्निग्ध, वहुमंलकर, शोषण, श्लेप्मकर, अनुष्ण- माण। लोलायती ग्रन्थमें भी पांच रत्तीका माशा वत. वीर्य, सहसा रक्त और पित्तप्रकोपकर, वातहर गुरु, वल-1 लाया है- कर, रोचक, स्यादु तथा श्रमसुखयुक्त व्यक्तियों के लिये a शमसखयक्त व्यक्तियों के लिये “दशाद गुञ्ज प्रयदति माप', मापाइय: पोड़शभिश्च कर्दम् ।" नित्यसेवनीय है। (राजनि० ) भावप्रकाशके मतसे भावप्रकाशमें छः रत्तोका एक माप कहा है। इसका गुण-गुरु, मधुर विपास, स्निग्ध, रुचिकर, वायुः । "पडभिस्तु रत्तिकाभिः स्यान्मापको हेमंधानको। नाशक, स्रसनगुणयुक्त, तृप्तिकर, वलकर, शुक्रबर्द्धक, मापो गुअाभिरष्टाभिः सप्तभिर्वा भवेत् क्वचित ॥" शरीरका उपचयकारक, मलमूत्रनिःसारक, स्तन्यवर्द्धक ___२वोहिभेद, उड़द। (भावप्रकाश०) मेहोजनक, पित्तवर्द्धक, कफकर तथा गुदकील, अर्दित, । मापालाय ( सं० पु० ) मापसंज्ञः कलायः नाक- श्वास और परिणाम शूलनाशक । उड़दके दालके साथ पार्थिय वत् समासः। स्वनामख्यात शस्य, उड़द । मूली नहीं खानी चाहिये। मापतैल ( सं० फ्लो० ) वैद्यकके अनुसार एक "मूलकं मापसूपेन मधुना च न भक्षयेत् ।" ( राजव०)

प्रकारका तेल जो अङ्ग, करप गादि रोगोंमें उपयोगो

चतुर्दशी और रविवारको उडदकी दाल नहीं खानी माना जाता है। धनाने का तरीका-तिलका तेल । चाहिये। खानेसे विररोगो और सातजन्म तक अपु- सर, काढ़े के लिये उड़द, विजयंद, रास्ना दशमूल, जौ, त्रक होना पड़ता है। फुलथी, येर, वकरका मांस प्रत्येक १६ पल, जल १६ सेर, शेष ४ सेर, चूर्ण के लिये रास्ना, अलपुशीका मूल, "चिररोगी च मापके" इति "माषमामिपमांसच मसर निम्ब- सैन्धव. सोयां, रेडीका मूल, मोथा, जोधक, ऋषभक, पत्रकं । भक्षयेद्पयो रवेारे सप्त जन्मन्यपुत्रक इति च ।" (तिथ्यादितत्त्व) मेद, महामेद, ऋद्धि, वृद्धि कंकोली, क्षीरककोली, विज वंद, त्रिकटु, प्रत्येक २ तोला। इस तेलको मालिश प्रतिदिन उड़दको दाल खाना मना है। इससे कफ- करनेसे अर्धाङ्ग, आक्षेपक, अपतानक, अयस्तम्भ, भुज- . को वृद्धि होती है। फफकी वृद्धि होनेसे ही बुद्धि मोटी कम्प तथा अन्यान्य यायुरोग प्रशमित होते हैं। हो जाती है। इस सम्बन्ध प्रवाद है,- (भैषज्य रत्ना०). "अशेपशेमुपीनाशमाघमश्नामि केवलम् ॥” (उद्भट) मापपत्रिका (सं० स्त्री०) मापपणीं। २ परिमाण विशेष, माशा। पर्याय-मापक, मास मापपणी (सं० स्त्रो०) मापस्य पर्णमिव पर्ण यस्याः (अमर और भरत ) हेम, धानक । चरक, सुश्रुत आदि । यहुबो, ततो डीप। वनमाप, जगलो उड़द । चैद्यक वैद्यक-ग्रन्थों में देशभेदसे मापका परिणाम पृथक पृथक इसे वृष्य, घलकारक, शीतल और पुष्टिबद्ध क माना है। मतलाया है। सशतके मतसे पांच गुजे ( तो) पर्याय-दयपुच्छी, काम्योजो, · महासहा, सिंहपुच्छी, फा और चरकके मतसे ६ ८ गुंजेका माप होता है। ऋपिभोक्ता, कृष्णमृन्ता, पाण्डु, लोमशर्णिनी, आई मापा, सुश्रुतके मतसे इसका फालिङ्गमान ५, ७, ८ गुजा है। मांसमापा, मङ्गल्या, हयपुच्छिका; हंसमाषा अश्यपुरा, चरक और वैद्यको दूसरी जगह इसका मान. १० और पाण्डुरा, मापपर्णिका, कल्याणी, वनमूली, शालेपों, १२ गुजा बतलाया है। चरकने जो १० रत्तीका इसका विसारिणी, आत्मोद्भवा, बहुफला, स्वयम्भु, सुलभा, घना, मान बतलाया है उसे गौड़नापल कहते हैं और यही माय सिंहविना, विशाचिका । मापभक्तमलि (सं० पु०) मापश्य भक्तश्च तद्युक्तो पलिः । सर्वत्र व्यवहत होता है। माप, तएडल और दघि मिश्रित पूजोपहारविशेष। कोई ३ शरीरके ऊपर काले रंगका उभरा हुमा दाग या कोई उक्त दयों में हलदी, घो और मधु भो मिलाते हैं। दाना, मसा। (त्रि०) ४ मूख। . पूजापद्धतिमें दुर्गा, फाली आदिदेवतामों की पूजामें माय. मापक (सं० पु०) मापप्रकारा माप-कन् । स्भलादिभ्यः, भक्तपलि चढ़ानेकी प्यवस्था है। फालीको मापमक्त. प्रकार पचने फन । (पा ॥४॥३) माशा, पांच रत्तीका परि- पलिदान करनेका मन्त्र इस प्रकार है।