पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/५९६

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पास उल्लेख करने की विधि होनेसे वही करना चाहिये, नहीं। शाखादि विशेष विशेष नाम लेनेसे ही मुख्य चान्द्र तो मुण्यचान्द्र मासका उल्लेख करना उचित है। निग्न-1 वैशाखादि समझना होगा । साधारणतः वैशाखमास लिखित सावन मासके लिये भी यही नियम है। गणना कहनेसे लोग सौरवैशाख मास ही समझते हैं। किन्त । होगी सावन मासके अनुसार और कर्मविशेषमें किसी यह शास्त्रानुमोदित नहीं है। यैशाख कहनेसे चान्द्रवेशास . जगह सौर और किसी जगह चान्द्रमासोल्लेख होगा। हो समझना चाहिये। जीमूतवाहन आदिने मास कहने- ____ गर्भाधान, पुसवन, सोमान्तोन्नयन, नामकरण, से साधारणतः सौरमास निर्देश किया है। किन्तु चूडाकरण और उपनयन आदि तथा अशौचादिमें दिन रघुनन्दनने इसका खण्डन कर यह स्थिर किया है, फि मास और वर्ष-गणनाके लिये ही सावन मासको प्रयो. "मांसद चन्द्रमालका ही घोधक है। '. . जनीयता रहती है। मौर, चान्द्र, नाक्षत्र और सायन ये चार तरह के मास इसमें विशेषता यही है, कि जिस कर्ममें किसी नामके होते हैं। इन चार प्रकारके मासों द्वारा चार तरहके वर्ष उल्लेख करनेका कोई विशेष नियम नहीं है वहां मुख्य- होते हैं । जैसे,-१२ सौरमासोंमें एक सौर वत्सर, वारद चान्द्रमासका उल्लेख होगा। पयोंकि, मास कहनेसे चान्द्रमासमें एक चान्द्र वर्ष, १२ नक्षत्रमादि एक मुख्यचान्द्रमासका हो वोध होता है । "मास चन्द्रः तस्यायं नाक्षत्र वर्ष, और १२ सावन मासों पर सावन वर्ष मास" चन्द्र सम्बन्धी यही है, यहो अर्थबोधक मास शब्द । होता है। वैशाख मास प्रथा सौरमास है। मेराशि है । चन्द्र शुक्ल और कृष्णपक्ष द्वारा (मस) परिमाण करते | ही सर्व प्रथम राशि है । मेपमें सूर्य रहनेसे वैशाखमास, है, इसीलिये इसका नाम मास है। अतपय मास होता है। इससे पैशाख प्रथम सौरमास है । साल शब्द चान्द्रमासका दी वोधक है।* . और शकाग्द सौरवर्ष संघटित है। इसीलिये इसका आरम्भ सौरवैशाख माससे ही होता है। संपत् चान्द्रमाससम्बन्धा है। इसका प्रारम्भ प्रथम

  • अय कर्मविशेषे मासविशेषादिर-तत्र पितामह :-

चान्द्र माससे होता है। चैत्र मुख्यचान्द्र हो प्रथम "मान्दिके पितृकत्ये च मास चान्द्रमसः स्मृतः। विवाहादी स्मृतः सौरो यशादौ सायनो मतः॥ चान्द्रमात है। "चैत्रे मासि जगबहा ससर्ज प्रथमेऽहनि । प्रथमादिपद यात्राग्रहचारपर, यत्कर्म गर्यभोग्यराशुल्लेखेन शुक्लपक्षे समग्रन्तु तदा सथ्योदये सति ।। पञ्च विशिष्योदगयनादिविहितं तत्परञ्च, अयनस्य॑ सौरमामघटि- प्रवर्तया मास तदा कानस्य गणनामपि ।” (ब्रह्मपुराण) तत्वात् । तच चूहोपनयनादि, द्वितीयादिपदं राप्रभुतिद्धिप्राय- 'चैत्रसितादेख्दयाभानीयर्पत मासयुगकस्पाः । चित्तायुदायाशौचगर्भाधानपुंसवनसीमन्तोन्नयननामकरणानप्राशन- . सम्पादौ लङ्कायामिह प्रवृत्ता दिनैर्वत्स ॥" निष्क्रमणचूड़ादिपरं । तथाच विष्णुधर्मोत्तरे-- (मन्नमारतात ब्रह्मसिद्धान्त ) मध्वायनध ग्रहचारकर्म सौरेल मासेन सदाध्यवस्येत् । ब्रह्माने चैत्रमासके शुक्लपक्षके प्रथम दिन अर्थात् प्रति- समाणुपास्यान्यथ सावनेन लोक्यश्च यत्स्याव्यवहारकम ॥ पत् तिथिको जगत्को सृष्टि की थी और मास, ऋतु, अध्यायनं अध्वगमनं याति यावत् । थथ सौरादिगारा. वत्सर युगादिको गणना भी इसी समयसे प्रवर्तित की। विहितकर्मणि- इसीलिये वर्षका आरम्भ भी इसी दिन होता है। विवाहोत्सवयशेषु सौर मास' प्रशस्यते । _ (मलगायतत्त्व ) त्सर शब्द देसी । पार्वणे त्वष्टकाशाद्ध चान्द्रमिष्ट तथाब्दिके ॥ सावनेन तु कर्सच्या मन्त्राणामप्युपाराना। अत्र यशपदमुदगपनादिविहितपशुयागाभिप्राय पितामहोक्तस्तु सारिद्धान्ते-रातकादिपरिच्छेदो दिनमासाब्दपास्तथा ।। - विश्णुधम्मोत्तरीक्तसपर। गर्गः-आयुर्दापविभागश्च प्राय- . मध्यमप्रतिश्च सायनेन प्रकीर्तिता। : - चित्तक्रिया तथा। । मध्यमग्रहसकिन्योतिर्गणना प्रसिद्धा" (मनमासनस्त)