यौमांसा
कारणस्वरूप गुणविशेष या संस्कारविशेषको धर्म कहते। हो नहीं सकता। योगी लोगोंका योगसे उत्पन्न ज्ञान
है। इस धर्मको दुसरे शास्त्रों में पुण्य या शुभादृष्ट कहा मी भावनासे उत्पन्न होता है वह पहले अनुभव किये
गया है । 'इस सूत्रका भी अधिकरणके अनुसार विचार | गये या सोचे गये पदार्थों को स्मृतिपिशेष है। किस
किया गया है।
प्रकार यह ज्ञान जिसका कभी अनुभव न हुआ, जो कमी
विषय-धर्म। . . .
सोचा न गया, जिसकी उत्पत्ति करनी पड़ती है, उस
संशय-धर्ममें प्रमाण है या नहीं' १ यदि प्रमाण है। धर्मका प्रमाण दे सकता है।
'तो यह मसिद्ध प्रत्क्षादि प्रमाणों में है या चोवल विधि- । सिद्धान्त-ऊपर लिखे कारणोंसे यह स्थिर हुआ कि
वाफ्यका दृष्टिगत है। इसमें प्रत्यक्षादि प्रमाणों की सहा-! एकमात्र विधिवाफ्य (चोदना ) ही धर्मका प्रमाण है।
यता है या नहीं?
मीमांसाशास्त्र के अधिकरण अर्थात् विधियाफ्यकी
.: पूर्वपक्ष-विधिवाक्य प्रमाण नहीं है। वाफ्यमात विचार प्रणालीके दो उदाहरण दिये गपे । सभी
प्रया प्रमाण समर्पित पदार्थका अनवादक है। सूत्रोंका इसी प्रकार अधिकरणके अनुसार अर्थ लगाना
अतएव यह पृथक् प्रमाण नहीं है । अतएव कहना,
ना होगा।
पड़ेगा, कि धर्ममें प्रमाण नहीं है।
___चोदना (विधियाफ्य ) हो धर्मका प्रमाण है और
____ अथवा धर्म प्रत्यक्ष और अनुमान अथवा दूसरे प्रमाण :
चोदनागम्य (विधियाफ्यसे प्राप्य ) अर्थ हो धर्म है। इन
का प्रमेय है। . अथवा धर्म योगियों के लिये प्रत्यक्ष लक्षणों के स्थिर होने पर "चोदना लक्षणोऽथों धर्मः"
और हम लोगोंको अनमान या विधिवायके माराटो। इस तरह का सूल दिया गया हो।
प्रमाण द्वारा इस धर्मका निर्णय करना आवश्यक
प्राप्त हो सकता है।
• किसी निश्चित कारणके विना यह संसार इतना ।
है। क्रीन धर्म कौन प्रमाणका प्रमेय है, पहले इसका
विचिन न होता और न इस इतनो विषमता ही रहती।'
, विचार करना परमावश्यक है। धर्म प्रत्यक्ष ज्ञानको
'पहा गया है, कि जगत्को विचित्रताका कोई दूसरा कारण
वस्तु है या नहीं, यह निश्चित करने के लिये पहले प्रत्यक्ष
नहीं है, धर्म ही एकमात्र कारण है । धर्म केवल विधि- ।
ज्ञान किसको कहते हैं यह निश्चय करना चाहिये ।
'चाफ्योंसे प्राप्य नहीं वरन् अर्धापत्ति के साथ विधिवाक्य
इन्द्रिय वर्तमान वस्तुओं में संयुक्त होती है इसलिये
द्वारा प्राप्य है। धर्मप्रमाणक सम्बन्धमे ये चार पक्ष
आत्माम इन्द्रियसंयुक्तवस्तुका ज्ञान होता, इस ज्ञानको
स्थापित हो सकते हैं।
प्रत्यक्षशान कहते हैं। इस प्रकार वर्तमान यस्तुका
वोधक और वर्तमान वस्तुका अवोधक धर्मका प्रमाण
उत्तर-विधिके शब्द सुननेसे जो ज्ञान होता है उस
नहीं है। जो धर्म विद्यमान नहीं है उसे स्थिर करने.
शानके विरुद्ध दूसरा प्रमाण न रहने पर गदज्ञान संशय
7 के लिये प्रत्यक्षके प्रत्यक्षमूलक अनुमानादि प्रमाण काम.
रहित प्रमाण हुआ । अतपय शब्द रहने पर घमम नहीला सकते।
मेमाण नहीं है ऐसा कहना नितान्त अनुचित है।
शब्दवाद।
(मनुष्य ) वक्ताफे दोपसे उसके वाक्यका प्रमाण न हो अथके साथ शब्दका जो सम्बन्ध है अर्थात् घोध्ययोधक
तो न हो, चेद मनुष्यका वाफ्य नहीं, अतएव वेदके भाव है यह नित्य है। यह कृतिम या सांकेतिक नहीं है
सम्यग्धमें यह संशय न रहने के कारण वेद धर्म के लेकिन स्वाभाविक है और इसीलिये यापदेशिक ज्ञान
विषयमें स्वतःसिद्ध और आदि प्रमाण है। प्रत्यक्षादि । अर्थात् सुना हुआ अध्यतिरेक अर्थात् अबाधित और
'प्रमाण पत्तमान पदार्थ का उपलम्मक अर्थात् वोधक है, । अव्यभिचारो सत्य है । शब्द अज्ञात विश्यका सच्चा शान
भविष्यत् पदार्थका योधक नहीं है। धर्म भी वर्तमान |
उत्पन्न करता है इसलिये यह स्थायी प्रमाण है। इसका
पदार्थ नहीं है यह भविष्यत है, कारण इसे उत्पन्न करना , 'प्रमाण भी दूसरे पर निर्भर नहीं करता अर्थात् यह स्वतः
पड़ता है। अतएव यह प्रत्यक्षादि प्रमाण द्वारा-स्थिर | सिद्ध है।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/७२३
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