पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/८०७

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मुक्ति ७७ मुषित (सं० सी० मुन् भावे फितन् । आत्यन्तिक दुःन है? दुःख है कि नहीं? उसको निवृत्ति होती है या निवृत्ति । - पर्याय मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण, श्रेयस नहीं ? इस प्रश्न के उत्तरमें सभी मुफ्नकंठसे स्वीकार श्रेयस, अमृत, अपवर्ग, अपुनर्भव, स्थिर, अक्षर। (अमर)/ करेंगे कि दुःन्य सर्वदा मभो मायके अन्तःकरणमें शरीर और इन्द्रियोंसे आत्माके छुटकारा पानेको | चेतनाशक्तिके प्रतिकूल अनुभवसे उत्पन्न होना है। मुक्ति कहते हैं। सांप और नैयायिकोंके मतसे मात्य- दुःस है, इसमें किसीका मतभेद नहीं। दुःखको निगृत्ति न्तिक दुःखनिवृत्ति हो मुक्ति है। वेदान्तिकोंके मतानु होतो है, कि नहीं, इस विषयमें भी किसीका मतान्तर सार 'नित्यसुग्यावाप्नि' नित्य सुप्राप्तिका नाम मुकि नहीं दीख पड़ता। शास्त्रका अभिप्राय यह है, कि मनुष्य है। जिस सुखका कभी नाश नहीं होता उसको नित्य जानता है दुःन कया है और यह यह भी जानना है कि सुख कहते है। दुःखकी निवृत्ति होती है, लेकिन उसकी प्रात्यन्तिक "मुक्ति मिच्छसि चैत्तात! विषयान विपवत् त्यज । निवृत्ति कैसे होती है मो यह नहीं जानता। यह उपाय सामार्जवदयातोप-सत्यं पीयूषवद्भज ॥" लौकिक ज्ञानके अलभ्य है अर्थात् साधारण मानमें ( अयावर्स० ११२) मालूम नहीं हो सकता। - मुक्ति चाहनेवाले व्यक्तिको चाहिये, कि ये विषय धातुओंकी विषमताके कारण शारीरिक दुःख हुमा अर्थात् शद, स्पर्श, रूप, रस और गंधको विपके समान करता है, परन्तु इस शारीर दुःखनिवृत्तिका उपाय सैकड़ों छोड़ कर क्षमा, सरलता, दया, सन्तोष और सत्यको । वैद्यक प्रन्यों में पतलाया गया है। विषय-विशेष न अमृतफै समान भजे। पानसे मानसिक दुःख होता है। उसके निवारण मुक्तिके पांच भाग है। जैसे -साटिं, सालोपय, / उपाय भी बहुतसे लौकिक पदार्थ है, जैसे--मनानुकूल सारूप्य, सायुज्य और निर्याण। स्त्री, भोजन, पान, वस्त्र, आभूषा आदि । नीतिशास्त्र "साटि सारूप्यसालोक्य मामीप्यकत्वमव्युत । । में कुशलता और निरूपद्रय स्थानमें वास करनेसे आधि. दीयम्गन न गृहन्ति बिना मत्सेवनं जनाः ॥" देविकादि दुःख माक्रमण नहीं कर सकता। ये मन (भागवत) । यात सत्य हैं परन्तु ये सब उपाय ऐकान्तिक और दर्शनशास्त्रगे मुनिको विशेष पर्यालोचना को गई, आत्यन्तिक दुःलनिवृत्ति के उपाय नहीं। ऐकान्तिक है। अत्यन्त संक्षेपमें उस विषयको यहाँ आलोचना की , और आत्यन्तिक दुःखनिगृत्तिा आय माधारण शानसे जाती है । "अथ विविध दुःलात्यन्त निवृत्ति रत्यन्तपुरुरार्थः।। परे हैं। (सायमा १) दुःख कया है, किसका दुग्य है, दुःस होता धयों, दुःखप्रयाभिघाताजिशासा नदयघातके हेती। उसकी आत्यन्तिकनिवृत्ति होती है कि नहीं ? मान् दृष्टे सापा(चेन्नकान्तातत्यन्तताऽभावात् ॥ | यफिर कमी नहीं होगा, ऐसा होता है कि नहीं ? यदि दृष्टयदानुअविका ग पविशुद्धि यातिपययुनः। होता है, नो किस उपायसे? ये सब जन साधारण सविपरीत:श्रेयान व्यक्ताव्यन विज्ञानात " नहीं जान सकते। दुःनिवृत्तिके जो जो उपाय (सग्न्यकारिका १२) साधारण लोगोको मालूम है उन मबसे दुख नियत्ति विविध दुःखको अत्यन्तनिवृत्तिका नाम मुक्ति है। निश्चय होगी, ऐसा भी नहीं कह सकते । उनसे दुश्म्यकी महात्मा फपिलने मनुष्यों को सितापसे पीड़ित देख कर, निवृत्ति कमी होती है, कमी नहीं भी होती, होने . उसके निवारणके लिये सांख्यदर्शनको रचा। पहले' पर भी फिर आ जाता है। इसलिपे कहा गया है कि उन्होंने दुःख, द्वानिवृत्ति, दुग्नोत्पत्तिके कारण तथा , लौकिका उपायसे दुःखको भात्यन्तिकनिचि नहीं चुम्वनित्तिके उपायका निर्धारण किया । . होतो। शास्त्रीय उपायसे दुःखको निवृत्ति अयश्य हो पहले विचार कर यह देखना चाहिये, कि दुःख पया सकती है और यही आत्यन्तिक निचि है। ... Vol. IVII. 180