पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष सप्तदश भाग.djvu/८०८

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७२० मुक्ति-मुक्तिपण्डप मिथ्याशान नष्ट करता है। मिथ्याज्ञानके नष्ट होने-। मनुष्य पुण्य-धलसे समझ सके कि यह सब दुःख- से दोप नष्ट होता है। दोपके अमावसे प्रवृत्तिका अमाव फा घर, और दुःखसे भरा है तब वही मनुष्य इन सव- । तथा प्रवृत्तिके अभावसे जन्म लेना दन्द हो जाता है की हीनता समझ फर रागरहित होनेकी चेष्टा करता है। और जन्म लेगा वन्द होनेसे ही अपवर्ग अर्थात् मोक्षलाभ | अनन्तर यह दुःखमूल या संसारमूल मिथ्या ज्ञानादिका होता है। उच्छेद करने के लिये अग्रसर होता है। पश्चात् प्रमाण. गौतम कहते हैं कि देह, इन्द्रिय और मन इन तीनोंमें रूपिणी विद्या द्वारा उसे प्रमेयका रहस्य मालूम हो जाता कोई एक भी मात्मा नहीं है। आत्मा इन तीनोंके है। यह तत्त्वज्ञान प्रमेय विषयक मिथ्याज्ञानको विनष्ट अतिरिक्त है। मन जो इन सव अनात्मा-पदा में | करता है । मिथ्याज्ञानके न होने पर रागद्वपादि दोपके आत्ममायका भारोपण करता है, वही मिथ्याशान है। दूर हो जानेस प्रवृत्तिका अवरोध होता है । जन्मके अव. आत्मविषयक आत्मशानको तत्त्वज्ञान तथा अनात्मामें रोध या उच्छे दसे अपवर्ग अर्थात् आत्यन्तिको दुःख आत्मज्ञानको मिथ्याज्ञान कहते हैं। निवृत्ति स्थिरताको प्राप्त होती है। दुःखसे बंधे रहनेको __यह शरीरादिके अनुकूल है, यह शरीरादिके प्रतिकूल | धन्धन कहते हैं और विमुक्त होना हो मोक्ष है। उस समय है, इस ज्ञानके वशवत्तों हो जो उन विषयों में आसफ्त | और किसी प्रकारके दुःखसे सम्बन्ध नहीं रह जाता। और विद्विष्ट होते हैं उनकी यह आसपित्त और विशेष अतएव उस अवस्थाको मुक्तावस्था कहते हैं। (न्याय- दोप कहलाता है। फलतः कोई भी आत्माके वास्तव दर्शन) गदाधर भट्टाचार्यने मुक्तिवाद नामक ग्रन्थमें नाना अनुकूल या प्रतिकूल नहीं है। अतएव मिथ्याज्ञान प्रकारकी युक्ति और तर्क दिखा कर यही निश्चय किया हो दोष उत्पन्न करता है तथा इस मिथ्याज्ञानके विनाश | है कि आत्यन्तिको दुःखनिवृत्ति ही मुक्ति है। से दोषका भी विनाश होता है। दोप राग, मुक्तिका (सं० स्त्री०) उपनिपभेद । इसमें मुक्तिके द्वेष और मोह इन तीन भागोंमें विभक्त है। सम्बन्ध मोमांसा की गई है ।. .. .. तोन भागों में विभक्त दोप ही सभी प्रवृत्तिका मूल या मुक्तिक्षेत (सं० क्लो०) मुक्तिप्रदं क्षेत्रम् । मुक्तिमद स्थान, कारण है। प्रवृत्ति चैघावैधभेदसे दो प्रकारकी और | काशी । जिस जायकी मृत्यु काशीम होती है उसे मुकि कायिक, वाचिक और मानसिक भेदसे फिर तीन प्रकार होती है, इसीसे इसका नाम मुक्तिक्षेत्र हुमा है। को है। जीवमात्र दोप-प्रेरित हो तीन प्रकार के कार्यो-1 . काशी देखो। में प्रवृत्त होता है। मनुष्य मोहकी प्रेरणासे दोपके वश २ कावेरी नदीके पासका एक प्राचीन तीर्थं । इस. बत्ती हो शरीर द्वारा हिंसा और चोरी आदि तथा वाक्य | का दूसरा नाम यकुलारण्य भी था। द्वारा मिध्या वचनादि अवैध कार्य और मन द्वारा दया- मुक्तितीर्थ (सं० पु० ) १ योगिनो तन्त्रोक्त तीर्थमेद । २ दाक्षिण्यादि और इन्द्रिय वशीकरणादि वैधकार्य भी करता मुक्ति देनेवाली, विष्णु। है। यह अवैध प्रवृत्ति अधर्म को और वैध प्रकृति धर्म को मुकिपति (सं० पु० ) मुक्तिदाता। उत्पादन करती है। यह दो पकारकी प्रवृत्ति जव शरीरमे मुक्तिपुर (सं.क्लो०) द्वोपभेद। . पाहा और मनमें मानसिक कियासे परितुष्ट या चरि-मुक्तिमद (सं० पु० रित् मुद्ग, हरा मूग। । तार्थ होतो है, तब उससे आत्माका यासनामय धर्माधर्म | मुक्तिमण्डप (सं० पु० ) मुक्तिदायका मण्डपः यद्वा. मुक्त- या पुण्यपाप नामफ, संस्कार-विशेष उत्पन्न होता | मण्डपः। विश्व श्वरके दक्षिण पार्शमें अवस्थित एक है। पीछे उसीके बल पर जन्न होता है। अग्र अर्थात मण्डप । शरोरोत्पत्ति होनेसे दुःव अनिवार्य है। इस पहार "निमेषमात्र स्थितचित्तवृत्तास्तिष्ठन्ति ये दक्षिणभगदपेऽन । कारण-फार्यके क्रममें चकाकी तरह प्रवृत मिथ्या ज्ञानादिको अनन्यभावा अपि गाद मानसा न ते पुनर्गर्भदशामुपासते।" प्रयाहपरम्पराका नाम संसार है। इसमें यदि कोई | (काशीलपर)