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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


पहुंँचे, पर परोक्षरूप से उसे अपनी दुष्कृति पर थोड़ा-बहुत पश्चात्ताप अवश्य हो । शिष्टाचार शिष्ट लोगों का प्राचार है, अतएव इस विषय के साथ बहुधा “शठ प्रति शाठ्य" अथवा “काटे के बदले फूल" की नीति का विचार नहीं किया जा सकता। सभ्य व्यवहार किसी को दण्ड देने वा उससे बदला लेने से विशेष सम्बन्ध नहीं रखता । नीति के व्यावहारिक उपयोग के समान शिष्टाचार का मुख्य उद्देश्य यही है कि मनुष्य दूसरे के साथ वैसा ही बत्ताव करे जैसा वह उससे अपने साथ कराना चाहता है।

आजकल शिष्टाचार का एक भ्रामक अर्थ प्रचलित है, अर्थात् शिष्टाचार को लोग इन दिनो चापलूसी अथवा ऊपरी कपट-पूर्ण नम्रता समझने लगे हैं। “सत्य हरिश्चन्द्र" और “मुद्राराक्षस नाटको में यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । ‘गुरु', महात्मा, चतुर आदि शब्दो के समान ‘शिष्टाचार' भी काल-चक्रानुसार अर्थ दोष से दूषित हो गया है। परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में ‘शिष्टाचार' शब्द का प्रयोग बहुधा धान्यार्थ ही में हुआ है, अतएव बिना किसी विशेष कारण के इसका दूसरा कोई अर्थ ग्रहण करना अनुचित होगा। कभी कभी शिष्टाचार से विनय और नम्रता की उस चरमावस्था का भी अर्थ लिया जाता है जो मुसलमानी ‘तकल्लुफ' शब्द से सूचित होती है, जिसके कारण यह कहावत प्रचलित हुई है कि “आप आप करने में गाड़ी चल दी"* इस अर्थ में भी यहाँ


  • लखनऊ के स्टेशन पर दो चार शिक्षित मुसलमान महोदय रेल से प्रवास करने के लिए खडे थे। जब गाड़ी स्टेशन पर आई तब वे लोग ‘तकरलुफ' की उमंग में एक दूसरे से कहने लगे कि किबला, आप पहले बैठिये, हजरत, आप पहले सवार हूजिये। अशिष्ट कहलाने के भय से किसी ने भी गाड़ी में पहले सवार होना ठीक नहीं समझा और उन लोगों में कुछ समय तक इसी प्रकार शिष्टाचार का व्यवहार होता रहा। इतने में गाड़ी चल दी और वे लोग वहीं खडे रह गये।