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छठा अध्याय


कर्तव्य है। लोग बहुधा ऐसे समय में उन लोगो के यहांँ नहीं जाते जिनसे किसी प्रकार का परिचय नहीं है, तथापि अवसर मिलने पर ऐसे लोगो के यहाँ जाने में कोई सकोच न करना चाहिये। किसी की बीमारी की दशा में जो परिचित अथवा अपरिचित व्यक्ति आवे, उसके यहाँ रोगी मनुष्य को स्वास्थ्य-लाभ करने पर मिलने के लिए एक बार अवश्य जाना चाहिये । उसकी बीमारी अथवा किसी अन्य संकट की अवस्था में भी उसके यहा एक दो बार जाना आवश्यक है। बीमार मनुष्य को लोगो के आने से बहुधा धीरज बँधता है, इसलिये जब तक वेद्य न रोके, तब तक इस अवसर पर उसके पास एक दो बार जाने को अवश्यकता है।

रोगी के पास जाकर ऐसी बात न निकालना चाहिये, अथवा ऐसे प्रश्न न पूछना चाहिये जिसमे उसे अधिक बोलना पड़े। यदि कोई रोगी अपनी इच्छा ही से अधिक बात-चीत करे तो भी उसे अधिक बोलने से धीरज पूर्वक रोक देना उचित है। रोगी को कभी बीमारी की भयङ्करता न बताई जाये और न उसके सामने आवश्य का होने पर भी उस वेद्य की निन्दा की जावे जो उस समय उसका इलाज कर रहा हो । यदि किसी को यह जान पड़े कि अमुक वेद्य की चिकित्सा विशेषतया हानि-कारक है तो वह खूब सोच समझकर अपना मत रोगी के किसी हितैषी को प्रकट कर देवे। सोते हुए रोगी को जगाना बढ़ी अशिष्टता है। रोगी के पास बैठकर उसके सामने किसी तरह की काना फूसी न की जाये और न उसके रोग के सम्बन्ध में विवाद उपस्थित किया जाये । यदि तुम्हारे जाने के समय रोगी के पास वैद्य उपस्थित हो तो वैद्य से भी रोग के सम्बध में कोई विशेष पूछ ताछ करना अनुचित है।

रोगी को धीरज बाँधना बहुत आवश्यक है। उसे सदैव यह आशा दिलाई जावे कि रोग कुछ समय में अच्छा हो जावेगा। तो भी उससे