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छठा अध्याय


से भी छोटे छोटे लड़कों को बचाना चाहिये। कोमल मति होने के कारण बहुधा लड़के उचित और अनुचित का शीघ्र निर्णय नहीं कर सकते और सरलता से गड्ढे में गिर जाते हैं। ऐसी अवस्था में उन्हे कम से कम शिष्टाचार की शिक्षा तो अवश्य दी जाये जिसमे लड़के बुरे आचरण वाले साथियो और लोगों से अपने को बचा सकें।

लड़कों की अनबन का एक प्रमुख कारण एक दूसरे को चिढ़ाना अथवा आपस में अनुचित हंसी-ठट्टा करना है, इसलिये प्रत्येक समझदार विद्यार्थी का यह कत्तव्य है कि वह दूसरे से व्यर्थ हंसी-ठट्टा न करे। दूसरे को चिढ़ाने या उसकी हंसी उड़ाने में जो मिथ्या आनन्द प्राप्त होता है उसकी प्रेरणा से लड़के तो क्या, बड़ी उमर वाले भी कभी कभी नहीं बच सकते। ऐसी अवस्था में यह बात बहुत आवश्यक है कि लड़को की यह दूषित प्रवृत्ति यथा-सम्भव कम की जाये। यदि लड़के स्वयं इस बात को सोचे कि जिसको ये चिढ़ाते हैं उसके मन में कितना खेद न होता होगा तो वे स्वयं दूसरे के मन को व्यर्थ दुखाने से अवश्य पीछे हटेंगे। तुलसीदास जी ने कहा है कि “परहित सरिस धर्म नहि भाई। पर पीड़ा सम नहिं अपमाई॥" जो लड़का दूसरे को न चिढ़ावेगा उसे सम्भवत दूसरे लड़के कभी न चिढ़ावेंगे। लड़को को चाहिये कि वे मिलकर ऐसे व्यक्ति के दोषो को रोके जो दूसरो के साथ व्यर्थ हंसी मजाक करता है या उनको अश्लीलता सिखाता है।

लड़को के मिथ्याभिमान से भी बड़े-बड़े अनर्थ होते हैं। लड़के बहुधा अपनी बड़ाई और दूसरे की निन्दा करने में बड़ा आनन्द मानते हैं। गरीब लड़के तो इन मिथ्याभिमानी लड़को की दृष्टि में किसी प्रकार योग्य ही नहीं ठहरते। विद्या-सम्बन्धी मिथ्याभिमान के वशीभूत होकर लड़के बहुधा व्यर्थ वाद विवाद में प्रवृत हो जाते