पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/५१

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चौथा अध्याय


शिष्टाचार के भी विपरीत है और व्यवसाय में तो उसके द्वारा,परोक्ष-रूप से, बड़ी हानि होती है।

व्यवसायी को उचित है कि वह ग्राहक की स्थिति, शिक्षा, वय आदि का विचार कर उसे आवश्यक वस्तुएँ दिखाने में आगे पीछे न करे । यह उसके प्रश्नो का उत्तर पूर्णतया ओर सभ्यतापूर्वक देवे तथा कार्य में किसी प्रकार अपनी अड़चन अथवा अधीरता न प्रगट होने दे। जल्दी जल्दी विविध प्रकार की अथवा आवश्यकता से अधिक मूल्य की वस्तुएँ दिखाकर उसे ग्राहक को संकोच में न डालना चाहिए। साथ ही यह अपनी वस्तु की मिथ्या प्रशंसा न करे और न उनके दुने चौगुने दाम बतलावे । व्यापार में धोखा देना भी (जो यथार्थ में एक प्रकार का असभ्य भाषण है) अशिष्ट समझा जाता है। शहरों के चालाक व्यापारी बहुधा अंपढ़ ग्रामीण ग्राहको को मूंँड़ने का प्रयत किया करते हैं, पर यह रीति परम निंदनीय है। वस्तुओं की नापतोल में भी कमी न की जाये, बरन निश्चित परिमाण से कुछ अधिक दे दिया जाये।

इधर ग्राहक को भी उचित है कि वह एसी वस्तुएँ देखने को इच्छा न करे जो उसे लेना नही है अथवा जिनका मूल्य उसकी शक्ति के बाहर है। किसी वस्तु को देखते समय उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह जाँच के कारण विगड़ न जाय और व्यापारी को कोई हानि न हो । यदि ग्राहक बहुत समय तक अनेक प्रकार की वस्तुएँ देख-कर भी कोई वस्तु मोल लेने का निश्चय न कर सके तो उसे उचित है कि यह अत्यन्त साधारण मूल्य की कोई वस्तु अवश्य मोल लेवे जिसमे व्यापारी का कुछ समाधान हो जाय और ग्राहक अशिष्टता के अपराध मे बच जाय।

व्यापारी और ग्राहक को लेन-देन के समय इतने धीरज और गौरव के साथ परस्पर वर्ताव करना चाहिए जिसमे किसी ओर से