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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


बाजारो में अथवा दूसरे मुहल्लों में इस तरह फिरना या जाना अनुचित है। बड़ी अवस्था के लोगो को केवल कुरता पहिनकर जाना भी योग्य नहीं है।

जहाँ तक हो सके पोशाक देशी कपड़े की हो । आजकल विदेशी कपड़े का व्यवहार शिष्टाचार के विरद्ध समझा जाता है। यदि देशी सूत का कपडा न मिले तो कम से कम देशी पुतलीघरो का कपड़ा काम में लाया जाय । देशी पोशाक के समान, धार्मिक और सामाजिक कृत्यो में देशी कपड़े का उपयोग आवश्यक और उचित है।

कपड़ों की बनावट देग चाल के अनुसार और उपयुक्त हो, पर उसमे वेल वूटे आदि न रह । चमकीले तथा भड़कीले कपड़ो का उपयोग बहुत कम किया जाय । रंगों की चुनाई में भी ध्यान रखना चाहिए कि ये गहरे न हा । मूल रंगों की गहराई और भी वर्जनीय है।

कपड़ो के उपयोग में उपयोगिता और शोभा का ध्यान तो रहता ही है, पर इस बात का भी विचार रखना चाहिए कि शरीर के यावश्यक अंग ढँके रहें ।

पात्र की अवस्था के अनुसार पोशाक होनी चाहिए । कोई कोई बूढ़े लोग तरुण पुरुषों के से सटे हुए और कोई कोई तरुण पुरुष बूढे लोगो अथवा बालको के से ढीले कपडे पहनते हैं । ऐसा पहनावा भदेस दिखाई देता है । साधारण स्थिति के लोगों को धनाटयो अथवा उच्च पदाधिकारियो के समान पोशाक करना उचित नहीं। एक बार कचहरी में एक महाशय ऊँचे दरजे की पोशाक करके एक नये आये हुए न्यायाधीश से मिलने गये। न्यायाधीश ने उनसे हाथ मिलाया और उन्हें अपनी बराबरी से कुरसी देकर उनका उचित सत्कार किया। पीछे जब न्यायाधीश