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चौथा अध्याय


हम लोगों को अपने धर्म वाले किसी सज्जन की मृत्यु का समाचार किसी भी प्रकार मिलने पर उसकी श्मशान यात्रा में जाना उचित है। कई लोग केवल बड़े आदमियों की लकड़ी में जाना आवश्यक और उचित समझते हैं, परन्तु इससे अधिक पुण्य उन लोगो की लकड़ी में शामिल होने से मिलता हे जिनके न कोई मित्र हैं न सहायक और न नातेदार हैं। इस विषय में हिदुस्थानियों को अन्य धर्मवालो से बहुत कुछ सीखना है। हम लोग अपनी विचार संकीर्णता से सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओं अथवा नेताओं का भी पूरा-पूरा अन्तिम आदर नहीं कर सकते। लोगो के पतित और ईर्षा-पूर्ण विचारो के कारण उन्हें नीति और शिष्टाचार का कुछ भी ध्यान नहीं रहता।

जहाँ तक हो श्मशान यात्रा में हम लोगो को हिन्द धर्म के अनुसार नंगे पाँव जाना चाहिए। यदि किसी कारण से इस नियम का पालन न हो सके तो कम से कम अरथी में कंधा देने के समय अवश्य ही जूते उतार दिये जाय। अरथी को ले जाते समय जल्दी-जल्दी चलना अनुचित है। लोग संसारी काम काजो को इतना महत्त्व देते हैं कि वे उतावली में मृतक की अंतयेष्टि क्रिया भी बहुधा पूर्णता से नहीं करते। श्मशान यात्रा में लोगो को जोर-जोर से बातें न करना चाहिए और न हँसना ही चाहिए। इस अवसर पर यह भी आवश्यक है कि सब लोग जहाँ तक हो इकट्ठे अरथी के साथ चलें, अलग-अलग टुकड़ियाँ न बनावें। इस यात्रा मे पान खाना और तमाखू पीना भी असभ्यता है।

श्मशान में तब तक ठहरना चाहिए जर तक लाश पूरी न जलजाने। इस अवधि में लोग साधारण बात चीत करके अपना समय काट सकते हैं और पान बीड़ी भी खा पी सकते हैं, पर उन्हें कोई मनोरञ्जन का काम न करना चाहिए। एक बार कुछ लागों ने