पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६३
पाँचवाँ अध्याय


जान पड़े कि वह उत्तर देना भूल गया है तो अवश्य ही उससे दूसरी बार नम्रता पूर्वक प्रश्न किया जावे।

बात-चीत में आत्म प्रशंसा को यथा-सम्भव दूर रखना चाहिये। साथ ही बात-चीत का ढंँग भी ऐसा न हो कि सुनने वाले को उसमें अपने अपमान की झलक दिखाई देवे । बात-चीत म विनोद बहुत ही आनन्द लाता है, परन्तु सदेव ही हँसी ठट्ठा करने को टेव वक्ता ओर श्रोता दोनो के लिए हानिकारक है । सम्भाषण में उपमा और रूपक का प्रयोग भी बड़ी सावधानी से किया जावे, क्योकि इसमें बहुधा अर्थ का अनर्थ हो जाने का डर रहता है । यदि वार्तालाप करते समय कवियो के छोटे छोटे पद्यो ओर कहावतो का उपयोग किया जाये तो इनसे बोल-चाल में सरसता और प्रामाणिकता आजाती है, तथापि अति सब की बुरी होती है।

यदि कोई दो चार सज्जन इकट्ठे किसी विषय पर बात-चीत कर रहे हो तो अचानक उनके बीच में जाना अथवा उनकी बात सुनना अशिष्टता है । ऐसे अवसर पर लोगो के पास जाकर बिना पूछे ही कुछ बात-चीत करना और भी अनुचित है । कभी-कभी किसी मनुष्य को चुपचाप देखकर लोग उससे कुछ कहने का आग्रह करते हैं। ऐसी अवस्था में उस मनुष्य का कर्तव्य है कि वह कोई मनोरंजक बात या विषय छेड़कर उनकी इच्छा पूर्ति करे।

जव कोई बात-चीत करता हो उस समय बीच में बोलना अथवा वक्त की बात काटना असभ्यता है । यदि किसी को दूसरे की बात के विरुद्ध कहना हो तो बोलने वाले की बात समाप्त होने पर अथवा बात-चीत में उसके कुछ ठहर जाने पर ही उसे कुछ कहना चाहिये । कभी-कभी बोलने वाला लगातार बोलता ही जाता है और दूसरे को कुछ कहने का अवसर ही नहीं देता। ऐसी अवस्था में, नम्रता पूर्वक, बोलने वाले से अपने बोलने की अनुमति