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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


व्यर्थ ही संकोच में पडना पड़े, उसी भांति पत्र व्यवहार में भी ऐसी कोई बात न लिखना चाहिये जिससे पढ़ने-वाले को मानसिक कष्ट' हो अथवा उस पर व्यर्थ ही दबाव पडे । फिर जिस प्रकार बात-चीत में श्रोता की योग्यता के अनुरूप शब्दों का प्रयोग किया जाता है, उसी तरह पत्र-व्यवहार में ऐसी भाषा काम में लाना चाहिये जिसे पढ़ने-वाला समझ सके।

हिन्दी में पत्र लिखने की आज कल दो रीतियाँ प्रचलित हैं—एक पुरानी, दूसरी नयी। पुराने विचार के लोगों को पुरानी रीति से और नये विचार-वालो को नयी रीति से पत्र लिखना चाहिये । दोनो रीतियों का मिश्रण अनुचित और अशिष्ट समझा जाता है । विवाहादि उत्सवों के निमंत्रण पत्र बहुधा पुरानी पद्धति से ही लिखे जाते हैं। सरकारी काम-काज के लिए जो प्रार्थना-पत्र लिखे जाते हैं। उनका रूप और उनकी भाषा बहुधा निश्चित रहती है, इसलिये उनमें कोई अनावश्यक परिवर्तन न किया जावे । पत्र में तिथि ओर स्थान लिखना कभी न भूलना चाहिये । जहाँ तक हो अंगरेजी ईसवी सन् के बदले विक्रमीय संवत का प्रयोग किया जावे।

पत्र की लिपि सुपाठ्य और सुडोल हो, शब्दों और लकीरो के बीच में कुछ अन्तर रहे और लेख में विराम चिह्नों का साधारण उपयोग किया जाय । विशेष रूप से विराम चिन्हों का प्रयोग करना पांडित्य का प्रदर्शन समझा जाता है। कुछ लोगो की यह धारणा है कि घसोट-लिपि लिखने से लेसक विद्वान माना जाता है, पर ऐसा मानना निमूल है। घसोट-लिपि लिखने से पढ़ने-वाले को उसके पढ़ने में बहुधा कष्ट होता है और कभी-कभी लेखक का अभिप्राय ही उसकी समझ में नहीं आता । इसलिये शिष्टाचार और सुविधा के अनुरोध से पत्र की लिपि ऐसी होनी चाहिये कि वह सरलता से पढ़ी जा सके। कई लोग अक्षरों की नोकें इतनी लम्बी चौड़ी फट-