पृष्ठ:हिन्दुस्थान के इतिहास की सरल कहानियां.pdf/६०

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जगह मूर्ति खड़ी कर दी। कुछ राजा और राज-कुमार हसे पर लब समझते थे कि ऐसा अपमान पृथ्वीराज सहन सकेगा और रक्त की धारा बहेगी। १२-याचन्द् तो न जानता था पर पृथ्वीराज सभामण्डप के बाहर खड़ा था। उसके साथ कविचन्द जो बड़ा वीर योद्धा भी था और एक सौ चुने हुए चौहान वीर थे। सन भिवाअंगों के रूप में थे जिसमें उन्हें कोई पहिचान न सके और फाटक के बाहर भीड़ में मिले जुले खड़े थे। पर इन सब के कपड़ों के नीचे तलवार छिपी थीं और सबके घोड़े थोड़ी दूर वन में खड़े थे। १३-इसके पीछे संयुक्ता स्वयंवर करने चली। उसके हाथ में एक माला थी। यह माला वह उस राज कुमार के गले में डालने के लिये थी जिसे वह अपना घर बुनती। वह राजाओं और राज-कुमारों की पाँति में होती हुई सीधी फाटक पर चली गयी और माला उस मूर्ति के गले में डाल दी जो पृथ्वीराज के नाम से द्वारपाल बनाकर यहां खड़ी थी। १४-संयुक्ता ने मूर्ति के गले में ज्योंही माला डाली, पृथ्वीराज जो थोड़ी दूर पर खड़ा था फाटक पर झपटा और उसने राज-कुमारी को अपनी बड़ी भुजाओं से उठा लिया और अपने घोड़े पर बैठाकर दिल्ली की ओर भागा। उसके साथी बीर भी झटपट अपने अपने घोड़ों पर सवार हुए और उसके साथ चल खड़े हुए।