पृष्ठ:हृदयहारिणी.djvu/२१

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मनोरथ भी पूरा हो गया और भाग्यों से माला लिए हुई कुमारी कन्या के (तुम्हारे) भी दर्शन मिल गए; इसलिये आज यदि तुम्हारे हाथ में केवल एक माला भी होती, तो भी मैं पांच ही रुपए देकर उसे लेता; और यदि तुम्हारे पास आज पांच सौ मालाएं होती तो भी तुम्हें पांच ही रुपए में वे सब देनी पड़तीं, इसलिये इन रुपयों के लेने में तुम किसी तरह का सोच बिचार न करो।"

यों कहकर बीरेन्द्र ने बरजोरी कुसुम की मुट्ठी में पांच रुपए फिर दे दिए। यद्यपि मनौती की बात बीरेन्द्र ने बिल्कुल मनगढ़ी ही कही थी, पर उसे भोली कुसुम ने बिल्कुल सच ही समझा और घबरा कर कहा,-

"मनौती की बात तो आप ठीक कहते हैं, किन्तु इतने रुपए देखकर मेरी मां बहुत ही लड़ेंगी और फिर वह कभी माला बेचने के लिये मुझे बाजार में न आने देंगी; इसलिये आप कृपाकर एक रुपए के पैसे मुझे भुना दीजिए, तो मैं उन पैसों में से पांच मालाओं के दाम केवल दस पैसे लेकर घर जाऊं और बाकी के पैसे और चारों रुपए यहीं-बाजार में ही कंगालों को बांट हूँ।”

कुसुम की ऐसी सहिष्णुता, ऐसा त्याग, इतनी उदारता और ऐसे शान्त हृदय का परिचय पाकर बीरेन्द्र की आंखें डबडबा आईं और उन्होंने उसका हाथ पकड़कर कहा,-

"तुम घबराओ नहीं, चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ। चलकर तुम्हारी माता का भी दर्शन करूंगा और रुपयों के विषय में भी उन्हें समझा दूंगा।"

निदान, बीरेन्द्र, की इस बात ने कसम के चंचल चित्त को कछ शान्त किया। फिर वह घर की ओर चली, बीरेन्द्र भी पीछे पीछे उसके साथ चले।

इसके बाद फिर क्या हुआ, इस विषय में हम यहांपर केवल इतना ही लिखना उचित समझते हैं कि कसम के साथ बीरेन्द्र ने उसके घर जाकर उसको माता कमलादेवी को प्रणाम किया, उन्हें मां' कहकर पुकारा और माला तथा रुपयों की बात भी उन्हें भली भांति समझा दी। फिर दूसरे दिन आने की प्रतिज्ञा करके वे कमलादेवी तथा कुसम से बिदा हुए और उन मालाओं को, जो कि अब तक उनके हाथ में ही थों, सचमुच उन्होंने श्रीमदनमोहन जी