पृष्ठ:हृदयहारिणी.djvu/२४

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नित्य नई आशा को मन में धर कर बीरेन्द्र से मिलने के लिये सबेरे उठती और रात को निराशा के बज से अपने हृदय को चकनाचूर करती हुई खाट पर पड़ रहती थी। यों ही नित्य नई आशा और निराशा से लड़ते भिड़ते बालिका ने बरस दिन बिता दिए, पर इस बीच में छिन भर के लिये भी उसकी उपासी आंखों ने बीरेन्द्र के दर्शन न पाए और न प्यासे कानों ने उनका कोई समाचार सुना।

योंही बीरेन्द्र के देखे बिना ज्यों ज्यों दिन बीतते, त्यों त्यों उनके बिरह में कुसुम सूख सूख कर कांटा सी हुई जाने लगी। कमलादेवी कुसुम की अवस्था को भली भांति परखती थीं; सो एक तो अपनी प्यारी बेटी की यह दशा और दूसरे एकाएक बीरेन्द्र का अंतर्धान होना देख उनके चुटीले चित्त ने ऐसी चोट खाई कि वह नित्य नित्य बीरेन्द्र के लिये भांति भांति के सोच करने और आंसू बहाने से इतनी गल गईं कि अन्त को उन्हें खाट पकड़नी पड़ी और शरीर दिन दिन छीजने लगा।

पाठक! बीरेन्द्र के लिये दोनों मां बेटियों के मानसिक भाव अलग अलग थे; अर्थात कमलादेवी को अपने एक ईश्वर के दिए हुए पुत्र का बिछोह था और कुसुम को अपने मानसरंजन का; और इस बात का तो उन दोनों को खयालही न था कि,-' बीरेन्द्र के गायब होने से टोपियों की खपत और रुपयों की आमाद बंद हो गई है,' क्यों कि रुपयों को तो वे दोनों कोई चीज़ही नहीं समझती थीं। किन्तु हा! इतने पर भी टोपियों की आमदनी से जो कुछ रुपए कुसुम ने बटोरे थे, बीरेन्द्र के गायब होने के दोही महीने बाद चोरी हो गए और गई गुज़री दरिद्रता ने फिर उस घर में अपना पौरा आ जमाया।

यद्यपि बीरेन्द्र के गायब होने पर भी कुछ बचे कपड़ों की कई टोपियां कुसुम ने बनाईं और चम्पा के हाथ उन्हें बेचने के लिये बाजार में भेजा, पर जिस (एक) टोपी का दाम बीरेन्द्र पांच रुपए देते थे, बाजार में उसका एक रुपए से ज्यादे दाम नहीं मिलता था और फिर वैसी टोपी के लिये उसके पास और कपड़े भी तो न थे, इस लिये टोपियों का काम एकदम से बंद हो गया और कुसुम तथा चम्पा ने अपने फूलमाला के पुराने व्यापार का