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परिच्छेद
३१
आदशरमणी



है कि उसने प्रातःस्मरणीय, न्यायी मुसलमान-बादशाहों के नाम मानो भुला से दिए हैं! अस्तु, अब इन पत्रों को भी देखना चाहिए इनमें क्या लिखा है!”

यह सुन नरेन्द्रसिह ने दूसरी चिट्ठी खोलकर पढ़ी और उसे भी अपने मंत्री और मित्र को दिखलाई। वह चीठी मीरजाफ़रखां की लिखी हुई थी, जिसकी नकल यह है,-

"जनाब महाराज साहब बहादुर!

"अर्ज यह है कि जो शर्त आपसे और मुझसे दर्मियान लाट साहब बहादुर के तय पाई है, वह मुझे बसरोचश्म मंजूर वो कबूल है। मैं आपका निहायत ममनून एहसान हूं कि आपकी बदौलत जनाब लाट साहब बहादुर मुझ नाचीज़ को सफ़राज करना चाहते हैं। इन्शाहअल्लाहताला, अगर उस पाक परवरदिगार के दर्बार में मेरी इस्तदुवा क़बूल हुई तो, खुदा जानता है, मैं आपका हमेश फ़र्माबर्दार बना रहूंगा। मैं इस बात का एकरार करता हूं कि सूबेदारी की सनद पाते ही मैं आपकी और आपके दोस्तों की उन ज़िमीदारियों को, जिन्हें ज़ालिमों ने बिला वजह जप्त कर लिया है, बिला उज्र फ़ौरन लौटा दूंगा।

बहुक्मे सदर,

मीरजाफ़र।"

मीरजाफ़र के पत्र से उन लोगों को और भी आनन्द हुआ और उन लोगों के जी से यह बात जाती रही कि,-'सभी मुसलमान एक ही तरह के हैं!' इसके बाद एक तीसरा पत्र पढ़ा गया, जिसे मुर्शिदाबाद से नरेन्द्र के किसी गुप्तचर ने भेजा था। वह एक गुप्त पत्र था, इसलिये यहां पर हम उसका खोलना उचित नहीं समझते।

चौथा पत्र दुष्ट सिराजुद्दौला का था। यद्यपि उस घृणित पत्र की नक़ल कर हम अपने पाठकों का जी दुखाना नहीं चाहते थे, पर क्या करें, लाचार होकर हमें उस भष्ट पत्र की नकल भी करनी पड़ी,-

"नरेन्द्रसिंह!

"हमने सुना है कि तुम पोशीदा तौर पर ज़ालिम गोरों की मदद करते हो, यह तुम्हारे हक़ में हर्गिज़ बेहतर नहीं है। तुम इस बात पर यकीन करो, कि वह दिन बहुत नजदीक है, जबकि