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परिच्छेद)
५१
आदर्शरमणी।



ही कराई या नहीं!!! इसीसे कहते हैं कि बाबा! इस नखसिख के झमेले में पड़कर हमने भरपूर दुर्गति की पहुंनाई खाई!!! अस्तु, अलमतिविस्तरेण!!!

हेराम! डाल से छूटे तो पात में अंटके!!! अब उपाय! लीजिए, अब यह उपसर्ग लगा कि,-'कुसुम के भ्रमर (नरेन्द्र) का तो नखसिख कहा ही नहीं, और कान कटाकर निकल भागने की पड़ गई!!!' हरे! हरे!!! मनुष्य क्या कभी ऐसी आपत्ति के पाले भी पड़ता है!!! अच्छा, ठहरिए, पाठक! हमने अपने भागने के लिये काव्यवाटिका की खिड़की तो खोल ही रक्खी है, तो अब इतना ही कहकर हम नौ दो ग्यारह क्यों न हों कि,-

"अलौकिक कुसुम के लिये जैसे लोकातीत भ्रमर की आवश्यकता होती है, हमारे आख्यानरूपी उद्यान की शोभासंपत्ति कुसुम के अनुरूप ही विधाता ने उसके रसलम्पट भ्रमर को भी बनाया था, कि जिस जुगलजोड़ी की रूपमाधुरी पर मन ही मन मदन इतना जला कि वह सदा के लिये अंग खोकर अनङ्ग बन गया और अर्धाङ्ग गंवाकर रति की भी मानो सारी रत्ती उतर गई!!!"

बस,अब तो छुट्ठी मिलेगी न! ओ हो, राम राम करके इस जंजाल से छुटकारा मिला!!!

बारहवां परिच्छेद.
हास-बिलास।

"हास्यं मनोहारि सखीजनानाम्"

एक दिन संध्या के समय एक सजे हुए कमरे में कुसुम- कुमारी और लवंगलता बैठी हुई आपस में इधर उधर की बातें करके अपना जी बहला रही थीं। उस समय वहां पर और कोई तीसरा न था, इसलिये उन दोनोंने अपने अपने हिये के किवाड़े खोल दिए थे और हास-परिहास का आनन्द होरहा था।