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परिच्छेद)
६७
आदर्शरमणी।



मढूंगी, इसलिये......"

इसके अनन्तर कुसुम ने नरेन्द्र को फूलों की माला पहिना, माथे में दही का टीका और भुजा पर रक्षाकवच बांधकर उनके हाथ में नंगी तल्वार धराई और गले गले मिलकर रोते रोते उसने अपने प्रान प्यारे को बिदा किया।

फिर नरेन्द्र लवंगलता से बिदा हो और अंतःपुर की रखवाली का भार मदनमोहन तथा मंत्री को देकर राजमंदिर से पधारे।

चौदहवां परिच्छेद,
समर-विजय

"क्क भूपतीनाञ्चरितं क्व जन्तवः।”

सन् १७५६ ई० में सदाशय अलीवर्दीखां के मरने पर उनके भतीजे जौनुद्दीन का बेटा, अर्थात् उनका नाती सिराजुद्दौला बंगाल, बिहार और उड़ीसे का सूबेदार हुआ, जिसने मर्शिदाबाद को अपनी राजधानी बनाया था। वह बड़ा क्रोधी, हठी और अत्याचारी था, तथा अंगरेज़ों से बड़ा विरोध रखता था। जब उसने यह सुना कि,-'मेरे ख़जानचीराजा राय दुर्लभ ने अपना सारा मालमता और घरबार के लोगों को मेरे पंजे से निकाल अपने लड़के कृष्णदास के साथ अंगरेजों की सरन में कलकत्ते भेज दिया है;' तो तुरंत उसने राय दुर्लभ को कैदकर लिया और एक दूत को कलकत्ते अंगरेजों के पास इसलिये भेजा कि,-' वह उनसे रायदुर्लभ के बेटे आदि को मांगलावे।' वह मनुष्य कलकत्ते फेरीवाले सौदागरों के भेस में पहुंचा और सेठ अमीचंद के मकान पर ठहरा। अमीचंद ने उसे अंगरेज़ों से मिलाया, पर उनलोगों ने इस मामले में अमीचंद का लगाव समझा और उनकी या सिराजुद्दौला के दूत की बातों पर कुछ भी ध्यान न दिया।

निदान, जब वह आदमी अपना सा मुंह लेकर ख़ाली हाथ झुलाता लौट आया तो फिर सिराजुद्दौला ने झल्लाकर एक दूत