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(सत्रहवां
हृदयहारिणी।


और कुसुम ने कहा,-"आप राजी खुशी से आगए, यह बड़े भाग्य की बात हुई।"

नरेन्द्र ने कहा,-"हां, देवी! हम तुम्हारे ही भाग्य से सकुशल लौट आए!”

कुसुम,-"यह भगवती का परम अनुग्रह है!"

नरेन्द्र,-"अवश्य, अवश्य! और तुम्हारे अद्भुत चरित्र की सारी कथा मैंने अभी मन्त्री जी से सुनी हैं; अहा, मुझसा भाग्य-वान पुरुष कदाचित त्रैलोक्य में दूसरा कोई न होगा! क्यों कि मैंने अनन्त पुण्य वा तपोबल के प्रताप से ही तुम सी गृहलक्ष्मी को पाया है।"

कुसुम,-"प्यारे, यह मेरी बड़ाई नहीं, बरन तुम्हारी ही है, क्यों कि मैं तो तुम्हारे चरणों की रज हूं।"

नरेन्द्र,-"तुम मेरे प्राणों से भी बढ कर प्यारी हो।"

कुसुम,-"भगवती करें, आपका ऐसा ही अनुराग इस दासी पर सदा बना रहै।"

इतने में नरेन्द्र ने इधर उधर देख कर कुसुम से कहा,-"लवङ्ग कहां रह गई?"

यह तो हम कही आए हैं कि लवङ्ग कमरे के बाहर ही ठहर गई थी, सो, नरेन्द्र की बात सुन, यह कहती हुई कमरे में चली गई कि,-"मैं आई, भैया!”

नरेन्द्र ने कहा,-"लवङ्ग! कुसुम के व्रत की बात, जो मैने अभी मन्त्री जी से सुनी है, वह कैसी है?"

लवङ्ग ने कहा,-"भैया! आप कुछ न पूछे। आहा! भाभी का व्रत देखकर तो मैं दंग हो गई! जिस दिन से आप गए, उस दिन से आज तक इन्होंने दूध के अलावे और कुछ भी नहीं खाया है!"

नरेन्द्र,-"मैंने मंत्रीजी से अभी सारी कथा सुनी है। अस्तु, लवङ्ग! तू मेरे भोजन का प्रबन्ध कर, तब तक मैं सन्ध्यावन्दन कर आऊं।"

यों कहकर वे बाहर चले गए और लवङ्ग तथा कुसुम ने मिल कर ब्यालू की तैयारी की। डेढ़ घंटे के अन्दर नरेन्द्र आए और आसन पर बैठकर उन्होंने कुसुम से कहा,-"मैं आज पहिले तुम्हें खिलाकर तब खाऊंगा।"