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(अठारहवां
हृदयहारिणी।


के घर ही में उसकी इच्छा के अनुसार बिना विशेष आडंबर के नरेन्द्र ने उसका पाणिग्रहण किया।

बारात इत्यादि का विशेष झमेला तो न हुआ, किन्तु महफ़िल और ज्योनार बड़े धूमधाम से हुई और उस उत्सव में, लौर्ड क्लाइव, मिष्टर वाट्स आदि बड़े बड़े अंग्रेज़ सौदागर और नाममात्र के नवाब मीरजाफरखां भी निमन्त्रित होकर पधारे थे, जिनकी पहुनाई का सारा भार राजा मदनमोहन के जिम्मे था और उन्होंने उस काम को बड़ी उत्तमता के साथ पूरा किया और हंसी खुशी सब निमन्त्रित व्यक्ति अपने अपने घर गए।

इस उत्सव के आनंद में कुसुम ने विशेष कर नरेन्द्र ने चंपा को बहुत कुछ देना चाहा था, पर उसने कुसुम के साथ अपनी जिन्दगी बिता देने के अलावे और कुछ भी न चाहा और न लिया। यहांतक कि कुसुम ने, जो एक दिन उसे अपने गले से मोतियों का कंठा उतार कर देदिया था, आज चंपा ने सास के दर्जे से उसे कुसुम को मुंह दिखाई में पहिरादिया।

सबसे बढ़कर इस महोत्सव में एक विचित्र घटना हुई, जिससे कुसुम नरेन्द्र को साक्षात देवता से भी बढ़कर समझने और भक्ति करने लगी। वह बात यह है कि विवाह के एक दिन पहिले, नरेन्द्र कुसम का हाथ पकड़े हुए उसे एक कमरे में ले गए, जहां पर बडे हिफ़ाज़त के साथ वे सब टोपियां शीशे की इलामारियों में सजी हुई थीं, जिन्हें नरेन्द्र ने बातें बनाकर उससे बनवाई थी, और कपड़े के अलावे प्रत्येक टोपी की सिलाई के पांच रुपए दिए थे। यह रहस्य आज तक कुसुम से छिपा हुआ था, सो आज अपने हाथ को सौं हुई सब टोपियों को एक जगह हिफ़ाज़त के साथ रक्खी देखकर वह बहुत ही चकित हुई, किन्तु फिर तो नरेन्द्र की कार्रवाई का हाल वह तुरंत समझगई और आंखों में आंसू भर उन के पैरों पर गिरने लगी। नरेन्द्र ने उसे रोककर गले लगा लिया और उस (कुसुम) ने आंसू टपकाते टपकाते कहा,-

"प्यारे! तुम देवता हो! सच मुच तुम प्रत्यक्ष देवता हो!!! अहा! इस दुःखिनी को तुम उसी समय से इतना चाहने लग गए थे! हाय! मैंने तुम्हारे ऐसे उन्नत हृदय का ऐसा अपूर्व परिचय अब तक नहीं पाया था!"