पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१०

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अविश्वासी समाचारों का विश्वास • कर सरकार किस मुँइसे निश्चित मत देती है, कि जिस पुस्तक में राजद्रोह की प्रतिपादित है? " टामिम्स ने केवल यह पत्र छापा ही नहीं अपनी ओरसे यह भी जोड दिया, कि 'जब सरकार ने स्पष्टतया अद्दण्डता से पुस्तकपर मनाही लगाने का असा. धारण काम किया है, तब मालूम होता है, दाल में अवश्य कुछ काला है। [समथिंग व्हेरी रॉटन भिन दि स्टेट ऑफ डेनमार्क] हॉ, तो अंग्रेजी संस्करण छप जानेपर क्रांतिकारियोंने असकी सैंकडों प्रतियाँ मी तरकीबें लडाकर भारत में भेज दी । अनमें मेक तरकीब यह थी, कि अन प्रतियोंपर ' पिक्विक पेपर्स, ' ' स्कॉटस् वर्स, , 'डॉन क्लिक. जोट? आदि झूठे नाम छपे लिफाफों में लपेटकर वे भेजी गयीं। कुछ प्रतियाँ बनावटी पेंदियों तथा खानोवाली सदूकों में भेज दी गयीं। जिसतरह का अक संदूक स्व. पर सिकंदर हयात खॉ, पंजाव के प्रधानमत्री जो सावरकरजी की 'अभिनव भारत' गुप्त संस्था के सदस्य थे और लंदनमें अस समय विद्यार्थिं थे, भारत में ले आये थे और बम्बी के काकदृष्टि चुंगी धिकारियों की कमी आँखों में धूल झोंककर वह संदूक सुरक्षित निकल गया; मिसी तरह की पार्सलें भी निकल गयीं। और यह पुस्तक की बडे बडे नेताओं, अभिनव भारत के सदस्यों, महाविद्यालयों, ग्रंथालयों तथा क्रांतिकारियों के सहानुभूतिको तथा कुछ भारतीय सैनिकों के पास पहुंच गयी। जिस पुस्तक के प्रथम संस्कारण की सभी प्रतियाँ, मय भेजने के खर्च के, 'अभिनव भारत' ने विनामूल्य वितरित की। फिर फ्रान्समें यह पुस्तक प्रकट रूप से १७ आगस्त १९०९ को प्रकाशित की गयी और आयर्लंड, फ्रान्स, रूस, जर्मनी, मिश्र और अमरीका के क्रांतिकारियों ने अिस पुस्तक का अच्छा स्वागत किया। 'अभिनव भारत' के क्रातिकारी संगठन को कुचल देने के लिये जिंग्लैंड तथा भारत के शासकोंने १९१० में अनेक यंत्रणाओं से क्रांतिकारियों को हैरान करने का अंक जोरदार कार्यक्रमही जारी किया था। कभी भारतीयों को फाँसी दिया गया; कभी कालेपानी