पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

[प्रथम खंड है आना; धकेलो इन सबको एक साथ इस धूधू जलनेवाली यज्ञवेदाम! स्वाहा । अब तो, इस यज्ञ की अग्निज्वालाएँ ऊँची, और ऊँची गयीं, एक दूसरे पर अपटती हुई आकाशको छूने जा रही हैं, किन्तु इससे भी अधिक भीषण भयंकरतासे यज्ञाग्नि भडकनी चाहिये । तत्र धकेल दो झॉसीकी बिजलीको स्वाहाss! यज्ञवेदी से उफनती हुई अग्नि के गहरे उदर में कितनी प्रचड खलबली और उथलपुथल मची है उसका मान करानेवाली प्रलयंकारी घरघराहट तुम्हें सुनायी नहीं देती ? निश्चय, कोई भीषण प्रस्फोटक काति, अग्निच्चालाओं के पेटमें अस्थि-मांस-मजायुक्त साकार रूप बनकर बाहर निकलने की सिद्धता हो चुकी है : इसीसे, जो भी हाथ लगे इस अग्निमें स्वाहा करो ! स्वाहा करो, अर्काटके नवाब को ! जाने दो ताजोर की गद्दी को अंदर ! खैरपुर के अमीर की खैर स्वाहा होने ही में है! धकेल दो अंडर जैतपुर और सम्भलपुरके राजमुकुट ! सिक्रिम का स्वाहा करो; जमींदार, तालुकदार, जागीरदार, वतनदार-सब को स्वाहा करो ! स्वाहा! . अत्र डमडमकी बारी है ! दोस्तो और दुश्मनो ! जलदी करो; भारतभर फैले हुए डमडम जैसे अनेकों उद्योगालयोंसे लाखों नये कारतूस ले आओ. गौ तथा सुअरकी वसा और चरवीम अच्छी तरह डुबोकर ओंक दो इस सर्वसहारक तथा सर्वभक्षक अग्निकी कराल ज्वालामें ! देखो बहुत ऊँची उठी इन लपटोंसे राष्ट्रीय क्रोधकी रणदेवताका रूप निखर रहा है । ___ यज्ञवेदीकी उफनती अग्निज्वालाओंपर ताडव करती हुई महाकाली-इस महायज्ञकी अधिष्ठात्री-अत्र स्वय साकार हो रही है। काली, भवानी, नमो नमस्तेऽस्तु सहनकृत्वः-शत शत दडवत् प्रणाम ! चडिके, तुम्हारे भीषण ताडवतले अन्याय, अत्याचार और पाशविक शक्ति कुचलकर खाकमें मिल जाती है; तुम्हारे हाथ की गदाकी चोटसे दासताकी श्रृंखला चकनाचूर हो जाती है; राष्ट्रको हस्तीकी रक्षा प्राणोंपर खेलकर भी करनेका समय आ पडता है; और आकाश युद्ध के बादलोंकी काली घटासे बोझल हो जाता 'है; राष्ट्ररक्षाके हेतु आवश्यक युद्धमें रणभूमिमें खुनकी नहरें बहती है; तब तुम्हारी लपलपाती जिव्हाएँ उस उष्ण रक्तको पेटभर पी जानेको प्यासी