पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१०१

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रहती हैं, हे महादेवी-मृत्यु भी तुम्हारा ही दूसरा रूप है-हे महाकाली; तुम्हें शत शत प्रणाम! हमारे इस स्वाहाकारसे प्रसन्न होओ! हमारी पूजा-प्रार्थनाओंको स्वीकार करो! जगद्धात्री! हमारे खड्गकी धारको और पैनी बनाकर, क्या, तुम अपना विजयी वरदहस्त उसपर न रखोगी?

"विजय का वरदान शायद न भी मिले, किंतु तुम्हारे खड्ग को मैं प्रतिशोध का वरदान अवश्य दूँगी!! प्रतिशोध! हाँ, बदला! अत्याचारी, अन्यायी पाशवी शक्ति की टांग तोड़नेवाला समर्थ बदला! प्रकृति की गूढ दण्डशक्ति को, इसी प्रतिशोध को, देखकर अत्याचारी राजसत्ता मौतसे भी अधिक डरती है। इस दैवी दंडशक्ति की हथेली में आगामी विजय का बीज पड़ा रहता है!!