पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१०६

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ज्वालामुखी] ७४ [प्रथम खड होनेवाले भयकर आक्रमण आदि को देख उसने पराधीनता की पुरानी पीडा की चिकित्सा कर निश्चय किया कि, बस, एक तलवार ही इस प्राणघाती रोग का अंत कर सकती है। यह तो पूरी तरह नहीं बताया जा सकता कि नानासाहब ने अपने मनमे इस विषय में क्या निश्चय किया था और कौनसा कार्यक्रम पक्का किया था, फिर भी अनुमान लगाया जा सकता है, कि पहले तलवारके बलपर अंग्रेजोको निकाल बाहर करना और अपना स्वातंत्र्य प्रस्थापित करना; फिर, हिंदुस्थान के नरेशों की संगठित एकता के झण्डे के नीचे भारतीय केन्द्रीय सत्ता को खड़ी करना; यही ध्येय मुख्यतः अपने मनमे स्थिर किया होगा। आपसी फूट की दावमें फैसकर पराधीनता के पाशमें स्वदेश किस तरह पकडा गया, इसका इतिहास नानासाहन की आँखों के सामने प्रत्यक्ष होकर नाचने लगा। उस के सामने एक ओर श्री शिवार्जा महाराज और दूसरी ओर अपने पिताका बाजीराव द्वितीयका चित्र लगा था। एक साथ उन दो चित्रोको देख, पहलेका वैभव और आजकी लज्जापूर्ण दृशामें होनेवाला विरोध नानासाहलकी ऑखोम तैरने लगा! और इसलिए, सबोके सहयोगसे पहले समरभूमिवर युद्ध कर भारतीय स्वाधीनताको लौटा लाना: और आपसी फूटको गहरी गाडकर ससारके स्वतत्र देशोंके बराबरका स्थान स्वाधीन भारतको प्राप्त कर देनेवाली शासन-सस्था हिंदुस्थानमे प्रस्थापित करना-- यही नानासाहबका सर्वप्रथम कार्यक्रम था। हिंदुस्थानसे नानासाहब यही अर्थ लेते थे, कि हिंदु और मुसलमानोंका सयुक्त राष्ट्र-यह उनका स्थिर विचार था। जबतक मुसलमान इस देशमे विदेशी शासक थे तबतक उनसे भाईचारा रख कर एकसाथ आनंदसे रहने को सिद्ध होना तो राष्ट्रीय दुबलेपनको मान लेना था; और इसीसे मुसलमानोको पराया मानना उस समयके हिंदुओंको आवश्यक और शोभा देनेवाला था। किन्तु उस मुगली राजसत्ताका अन्त, पजाबमें गुरु गोविंदसिंगने, राजयूतानेमे राणा प्रतापने, बुन्देलखण्डमे छत्रसालने तथा दिल्ली में तो मराठोंने उस- 'तख्त-ताऊस' पर स्वय चढकर, एक गतीके झगडेके बाद, किया था। हिंदुपदपातशाहीने उस मुगली सल्तनको एक ही कौर में निगल लिया और उसे मिट्टीमें दफना दिया। तत्र मुसलमानोंसे हाथ