पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१०७

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'अध्याय ७ वॉ] [गुप्त संगठन मिलाना किसी तरह राष्ट्रीय अपमानकी बात न थी, वरच वह एक उदारतापूर्ण सहयोग था । इस लिए, हिंदुमुसलमानोने आपसी द्वेषको अतीत मे छोड दिया; क्यो कि अब उनका नाता शासक और गुलामका न होकर, धर्मके भिन्न होते हुए भी, पूरे भाईचारेका था। अब वे दोनो हिंदभूमिकी सतान थे। नाम उनके भिन्न थे किन्तु एक ही. भारतमाताकी गोदमें वे पलते थे। इस तरह भारतमाता ढोनोंकी माता होनेसे वे दोनो एकही खूनके भाई माने गये। नानासाहब, बहादुरशाह, मौलवी अहमदशाह, खान बहादुरखों तथा १८५७ की कातिके अन्य नेता, ऐसे ही कुछ बंधुभावसे प्रेरित होकर, आपसी द्वेषको भूल कर (क्यो कि, अब अपनोंसे वैर रखना अदूरदर्शिता तथा मूर्खता का परिचय देना था) स्वदेशके झण्डेके नीचे खडे हो गये। मतलब, नानासाहब और अजीमुल्लाके कार्यक्रम की उदार नीति यही थी, कि पहले हिंदू तथा मुसलमान एक होकर कधेसे कधा मिलाकर स्वदेशकी स्वाधीनताके सग्राममें पूग बल लगाय और स्वातन्य प्राप्त होते ही हिंदी नरेशोंके सयुक्त आधिपत्यमे एक सघराज्यकी स्थापना करें। अब, बिठूरके राजमहालके हर विचारी व्यक्तिको एकही विचारने घर दबाया था, कि उपर्युक्त ध्येयको कैसे पहुंचा जाय ? स्वाधीनताके हेतु किये जानेवाले युद्धमे यश प्राप्त करनेके लिए दो बातोंकी अत्यत आवश्यकता थी। एक तो भारतभरमें एक प्रचण्ड विचार-आदोलनको लहरा देना और दूसरे, इस साधनाकी पूर्णताके लिए एकही समयमें समूचे स्वदेशके उत्थानकी योजना करना । थोडेमें, हिंदुस्थानको स्वातव्योन्मुख बनाके उसके लिए ठीक कहाँ चोट की जाय इसका मार्गदर्शन करना, ये दो बातें स्वाधीनता की अंतिम साधनाकी दृष्टिसे भारी महत्त्वपूर्ण थीं। और इस सारी योजनाके पूर्ण परिणति होने तक कपनी सरकारको इसकी गध तक न आने पावे । इतिहासके अनुभवोको न भूलते हुए, बल्कि उससे योग्य सीख लेकर तुरन्त विठूरमे एक गुप्त संगठन की स्थापना हुई। इस गुस क्रातिमण्डल की जानकारी अब और कभी प्राप्त करना वैसा ही दूभर है जैसा कि अन्य गुप्त सस्था के बारे में हुआ करता है ! किन्तु