पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१०८

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ज्वालामुखी] [प्रथम खड जो कुछ सत्य बातें कभी कमी प्रकाशमें आ जाती है, उनको देख जितना भी इन क्रांतिकारी नेताओं को सराहा जाय थोडा ही होगा। ___ स. १८५६ के कुछ पहले, इस राजकीय साधना की दीक्षा जनता को देनेके लिए नानासाहबने समूचे भारत में प्रचारकों को भेज दिया था। ऊपर से, नानासाहब पूरे परखे हुए तथा राजनीतिज्ञ. कुछ चुने हुए अपने जनोंको, दिल्लीसे म्हैसूरतक के : सभी नरेशोंके पास इस लिए भेजे थे, कि उन्हे इस क्राति युद्ध में सहयोगी बनकर भारतीय संघराज्यके ध्येयको प्रत्यक्ष बनानेमे अगुआई करनेको प्रेरित करें। साथ साथ हर रियासतके शासक्के नाम भेजे हुएं खरीतोंमें इस बातका पूरा और प्रभावी विवरण था, कि औरस संतान न होनेका बहाना बताकर स्वदेशी राज्योंको मटियाभेट करने, तथा भारतको बहुत हीन दशाको पहुँचानेका कुटिल दॉव अंग्रेज किस खूवीसे खेल रहे हैं; अब तक बनी रही रियासतोंकी भी वही दशा करनेका क्या ढंग है; और परा-- धीनता की चक्कीमें ' स्वधर्म और स्वराज्य, कैसे पिसे जाते हैं। और साथ उन खरीतोंमे आग्रहके साथ अनुरोध किया गया था कि ये नरेश अपनी ही स्वाधीनताके लिए इस क्रातियुद्ध में हाथ बॅटाएँ। कोल्हापूर, पटवर्धनी रियासते, अवधके नबाब, बुंदेलखण्डके नरेश और अन्य कई स्थानोंमे नानासाहबके ये खरीते पहुँच पाये थे इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाता है। नानासाहबके एक एलचीको अंग्रेजोंने मैसूर दरबारके पास जाते हुए बंदी बनाया था। इसकी गवाही इतनी महत्त्वपूर्ण है कि उसे हम यहाँ पूरी. उद्धृत करते हैं। '" अवधके जब्त होनेके पहले दो तीन महीनोंसे श्रीमंत नानासाहत्रने यह पत्र-व्यवहार. जारी किया था। शुरू शुरूमै किसीने दाद न दी; क्यों कि, हर एकको विजयके बारेमें सदेह था। किन्तु अवधके जन्त होनेपर

  • इस विषय में टेव्हेलियन लिखता है:-जिन धनी और सभ्य ईसाइयोंने शाति और सद्भाव के मंत्र का उपदेश देनेका व्रत लिया हो वे भी इतनी पूर्ण संगठन-नीति को कायम नहीं करेंगे, जैसी कि इन षडयंत्रकारियोंने अशान्ति और विद्रोह फैलाने के लिए की थी। -कानपुर' प. ३९