पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/११४

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स्गलामुखी] ८२ [प्रथम खड। करनेकी हिम्मत न करते। क्यो कि, उन्हे भय था कि कहीं सैनिकांनी अशान्तिमें और एक बहाना न मिलं जाय। एक्वार एकाएक अंग्रेजोको सुराग मिला कि किसी सन्यासीने कातियुद्धका बीज किसी सिपाहीके घरम जाकर बोया है। मीरतके अंग्रेज सेनाधिपनिने छावनीके पाम अखाडा बनाये मन्यासीको वहाँसे निकल जानेको कहा। किसी सादे भोले भजन का सा बनकर वह सन्यासी वहाँसे हाथीपर चट,विटा हुआ और पामहीके गावमें एक मैनिक के घरही में अड्डा जमा दिया | वह देशभक्त मौलवी अहमदबाहभी इसी तरह सारे देशभर धूम धूमकर क्रानिका प्रचार कर रहा था। इस मौलवी के नाम का तेजोमडल हिंदुस्थान के चारों और मदा दमकता है और उस के महान् तथा वीरता के कार्योक वर्णन हम आग देनेवाले है । इस मौलवीने फिर लखनऊहीमें दस दस हजार लोगोकी सभाओं मे खुलमखुल्ला प्रचार शुरू किया, कि 'स्वदेश और स्वधर्म. का मंगल चाहते हो तो फिरंगियोंको तलवारके घाट उतारनेके बिना और कोई गग नहीं है।' इसपर उसे पकडकर राजद्रोह के अपराघमें अग्रेजोने पॉसीपर लटकाया। हर सेना-विभाग धार्मिक प्रमगोंके लिए एक मुल्ला और एक पण्डितको नियुक्त करनेका रिवाज था। इसमे लाभ उठानेके हेतु कई कातिकारी मुल्ला और पण्डितके पटपर सेनामें भरती हुए थे, जो रातम अपनी क्रांतिपुराणकी पोथी सिपाहियोके आगे चुपचाप खोल देते। इस तरह ये गजनैतिक सन्यासी, पडित, मौलवी लगातार दो वातक प्रचार करते रहे, और उन्होंने आगामी भीषण युद्धकाण्डकी भूमिका पूरी कर दी। जहाँ ये घुमक्कड सन्यासी और मौलवी प्रचारक गाँव गाँव में उपदेश देते फिरते थे, वहाँ शहरोंमें स्थानिक प्रचारक भी अपना काम पूरा करते थे। बडे बडे तीर्थक्षेत्रोमें, जहाँ हजारों यात्रिक जमा होते थे, ये क्रांतिकारी जनताके मनमें फिरगियोंके देशी राज्योंके हडप जानेके विषयमें, जो मौन तथा अप्रकट निषेध था उनको, अग्रेजोके तीव्र उपमे बदल देते थे। गगाके तटपर बसे तीर्थक्षेत्रोंमें क्या खलबली मची हुई थी, गगास्नानके सकल्प

  • दि मीरत नॅरेटिव्ह