पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१२५

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अध्याय ७ चॉ] ९३ • [गुस सगठन इस रक्तकमलने तथा उसकी तहमै मचित भावने हर व्यक्ति के हृदयमें एकही ध्वनि गॅजा दिया था। किन्तु देशभरम फैले प्रमुख काति-केन्द्रोमे भी इसी तरहकी सामान्य साधना तथा शब्दभावनाको जागृत रखने के लिए उन्हें बार बार मेट देना आवश्यक था। इस लिए ब्रह्मावर्तका राजमदिर छोड क्रातिसगठनकी श्रृंखलाकी भिन्न भिन्न कडियोको साधनेके उद्देमसे नानासाहत्र बाहर निकले। उनके भाई बालामात्र नथा आकर्षक व्यक्तित्वका वाक्चतुर मत्री अर्जीमुल्ला भी माय थे। किसलिए निकले थे ये ? हॉ, 'तीर्थयात्रा के लिए ! सचमुच एक ब्राह्मण और एक मुसलमान हाथमें हाथ दिये तीर्थक्षेत्रको जा रहे है ! क्याही, अनोखा प्रसग है ! १८५७ की यह बात है। "यात्रास्थानो' को एक बार जाना आवश्यक ही था न! इससे सबसे पहले वे दिल्ली पहुंचे। वहाँ, सलाह-मशविरेके समय किस बातपर अधिक जोर दिया गया था यह तो दीवान-ई-खास या गायट उस समयका दिल्लीका वातावरण ही बता सकता है। ठीक इसी समय आगरेसे कोई न्यायाध्यक्ष श्री. मोरेल नानासाहबसे मिलने आया था। नानासाहबने उसका बडा शानदार स्वागत किया। उस वेचारे को क्या पता था कि दो एक महीनोंमें अंग्रेजों का कुछ और ही तरीकसे स्वागत करनेके उद्योगम नानासाहब व्यस्त थे । दिल्ली के सब प्रबंध को अपनी आँखो देखकर नानासाहब अंबाला गये। १८ अप्रैल को सबसे महत्त्वपूर्ण बने कातिकेन्द्र में-लखनऊमें पहुंचे। उसी दिन लखनऊमें एक घटना हुई थी। वहाँ के चीफ कमिशनर सर हेन्री लॉरेन्स की फिटनपर लोंगोंने हमला कर रोडे और कीचड फेके थे। आर उसी दिन नानासाहब का आगमन हुआ था। इससे लखनऊभरमे एक अनोखे आनद तथा जागृति की लहर फैल गयी थी। लखनऊके मुख्य मुख्य मार्गोंसे नानासाहबका विशाल जुलूस निकाला गया, जननामे अपने होनेवाले सेनापतिके दर्शन होनेसे एक अनोखा आत्मविश्वास अलकने लगा। नानासाहब स्वय सर हेन्री लॉरेन्ससे मिलने गये और बातचीतके दौरानमें योही कह गये कि लखनऊकी सैरके लिए ही उनका आना हुआ है। लरेन्सने अपने साथी कर्मचारियोंको आज्ञा दी कि व नानासाहत्रका अच्छी तरह सम्मान करे। बेचारा लॉरेन्स ! नानाकी