पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१२८

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वालामुखी [प्रथम खड तुम दौड सको, दौड, पराकाष्ठा कर । वायुको भी मात कर दे। शत्रु यदि तेरी एक देह चूर चूर कर दे तो, हे अनोखी दुतिके, वैसे सैकडो रूप स्वय निर्माण कर इस राष्ट्र के अस्तित्वके आनबानके समय आगे दौड । तेरी प्रत्येक नूतन देह और आत्मामें हजारो जिव्हाएँ निकलने दे। सबको पुकार । पतिपत्नी, माताबालक, भाईबहन इन सबको, उनके हितुओको, नातेदारोंको, देवी योजनासे भागमे बदे इस कामको सफल बनानेके लिए, पुकार ! मराठोंके भालों, राजपूतोंके खगो, सिक्खोके कृपाणों, मुस्लीमोके चॉदको, सबको आने दे और इस यज्ञसमारोहको सफल बनने दे। पुकार कानपरकी रणदेवीको ! ऑसी दुर्गके सब देवताओंका आवाहन कर। जगदीशपुरके अधिष्ठाताको ले आ । इस क्रांतियुद्धको सफल बनानेक लिए तुरहियों, रणभेरिया, ध्वज, पताकाएँ, रणगीतों और वीरगर्जन सबको, सबको पुकार ! राष्ट्रकी अधिष्ठात्री देवी महामगल समारोहके लिए उतावली हो गयी है; सो, सभी अनुयायियोको निमत्रण दे। सबको मालूम हो जाय कि वह मगल महरत आ लगा है।" __ भाइयो! उठो, कमर कसो और अभागे अत्याचार ! तुम भी इस हरीभरी पहाडीपर अपनी उन्मत्त सुखनिद्रासे बाज आकर तथा जरा ऑखे खोलकर अच्छी तरह देख । दूरसे हरीभरी लगनेवाली यह पहाडोंकी पॉती सचमुच असीही होगी यह माननेकी भूल कोई न करे इसकी कल्पनातक किसीको नही होती कि पर्वतशिखरपर चलना बडी भयकर भूल होगी। अच्छा तुम चढो उस शिखरपर! अत्याचारी गासन ! रौधो तुम इस भूमिको! अब १८५७ का वर्ष दमकने लंगा है; अब कुछही क्षणोंमें सत्र जान जायेंगे कि कालिदासका कथन इस समय भारतपर यथार्थ लागू होता है:---- शमप्रधानेषु तपोधनेषु गूढं हि दाहात्मकमास्ति तेजः । स्पर्शानुकूला इव सूर्यकान्ता स्तदन्यतेजोऽभिभवाद्वमन्ति ॥ -~शाकुन्तल (द्वितीयाङ्क, श्लोक ७)