पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१४

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अब मथुरा में पहूॅच रहा है और अनेक यंत्रणाओ,वनवास, देह दंड्, काला पानी,अपनों ही से दुःख को सह कर क्रांति के द्रष्टा वीर सावरकरजी वसुदेव के समान कंस के कारागार से मुक्त हो कर अपने लाडले ग्रंथ की विजय को देखने के लिये अुत्सुक हैं। भारत का अहो भाग्य!

जिस इच्छा और आका॑क्षा से वीर सावरकरजी ने मात्र २३ वर्ष की आयु में यह 'इतिहास' लिखा, उस को सफल होते देखने को आप उत्सुक हैं। १८५७ का स्वतंत्र्य-समर समाप्त हुआ यह विचार ही गलत है। 'भारतीय स्वाधीनता के रणयन का वह एक अध्याय,एक काण्ड था। ५७ का यह अितिहास विधापीठों में केवल एक प्रामाणिक विवरण के तौर पर पढाया जाने में सावरकरजी को संतोष नही हैं; वह भविष्य में मार्गदर्शक तथा चैतन्य की स्फूर्ति का अखण्ड स्रोत बन कर रहेंगा-रहना चाहिये। 'सो, भारत संपूर्ण स्वतंत्र बन जाने तक अिस 'अितिहास'का कार्य पूरा नही होगा। कंस को मार कर द्वारिका में अेक नया राज्य श्रीकृष्णचन्द्र ने बसाया; यह ग्रंथ भी अब मथुरा पहुॅंच चुका है और केवल वही नही पश्चिम में नया राज खडा कर भारत की अखण्डता को अुसेसिद्ध करना है, तब तक १८५७ का रणयज्ञ पूरा नही होगा। १९०७ की १० मई को लंडन में, १८५७ को ५० वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में, अेक समारोह मनाया गया था। अुस समय युवक सावरकरजी ने अपने भाषण में कहा था :-

१० मई १८५७ को प्रारंभित युद्ध १० मई १९०७ को समाप्त नही हुआ है और उस १० मई तक समाप्त न होगा, जबतक कि साघना पूरी होकर भारतमाता सवूर्ण स्वाघीनता को प्राप्त न करेगी।

पाठक! इस ग्रथं को पढने के पहले इतना पर्याप्त नहीं है?