पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१४५

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अध्याय २ रा] १११ [ मेरठ अपने घोडौंको बंदीगृहकी ओर दौडा रहे थे । बदीगृहके बदीपाल मी क्रांतिकारियोंके साथी थे । इशारेका नारा, 'मारो फिरगीको 'मुनतेही जेलोंके फाटक धडाधड खुले और दीपाल अपने देशवधुओके साथ होकर क्रातिटलमें मिल गया। क्षणभरमें कारागारकी टिवारोकी इटसे इट वजाबी गयीं । उस अकथनीय दृश्यकी कल्पना भी ठीकसे नहीं होती, जब ये मुक्त बंदी अपने मुक्तिदाता देशभक्तांके गले लिपट गये होगे । गगनभेदी गर्जनाओको बुलंद करते हुए, उम घिनौने वदिगृहको पीछे छोड, ये मत्र वीर गिरजाघरकी और घोडे फेकने हुए चले । किन्तु तब तक एक पैदल पलटन विद्रोह प्रकट कर चुकी थी। ११ वी पलटनके कर्नल फिनिसने वहॉ आकर सदाके समान अकडकर डॉट डपट देना शुरू कर दिया। किन्तु सिपाही उसपर काल की तरह झपटे । २० वी पलटन एक सैनिकने अपनी पिस्तोलसे ठीक निशाना मारा और घोडेके साथ मवारको भूमिपर' लिटा दिया। क्या पैदल सेना, क्या तोपखाना, क्या हिंदू, क्या मुसलमान सभी गारोका गला घोंटनेको तरम रहे थे। मेरठक बाजारमं यह सवाद पहुंचा और वहॉका वातावरण एकदम भडक उठा, और जहाँ भी जिसे कोई गोरा मिला उसका काम तमाम कर दिया गया। बाजारके लोगाने तलवार, भाला, लाठी, चाप जो भी हाथ लगा उठा लिया और मार्ग मार्गम अंग्रेजोंकी पीछा करना शुरू कर दिया। अंग्रेजोक बगलो, कार्यालयों, सार्वजनीन इमारतों, होटलों में आग लगायी गयी। मेरठका आकाग डरावना और विचित्र दीख पहना था। धुएँ के स्तमा और आगकी भयानक लपटोंसे वातावरण व्यास होकर सहन सहस्र कंठोके पुकारों और विशेषतः 'मारो फिरंगीकों की गर्जनासे सारी दिशाएँ गन उठी। विद्रोह शुरू होते ही, जैसा कि निश्चय था, दिल्लीसे संबंधित तार काट दिये गये और रेल की पूरी तरह मोर्चाबढी की गयी। अंधेरी रात होनेसे जो अंग्रेज बच गये थे वे अब अपना जी बचाने की सोच रहे थे। कुछ तो अस्तवलमें छिप गये, कुछ एक रातभर पेडोंके नीचे पडे रहे; कुछ अपने घरके कोठेपर छिप गये। कुछ अंग्रेज खड्डू या खाई में छिपे, कुछ एकने किसानोंका स्वांग बना लिया; कुछ तो अपने बाबर्चियों के चरणों में लोटकर शरण मॉगने लगे। अंधेरा होतेही सैनिक दिल्लीकी दिशा में चल पड़े, तो गॉवमें बदला लेनेका