पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१५९

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अध्याय ३ रा ] १२३ [दिल्ली

कोई प्रत्यवाय नही है कि उपर्युत्फ हत्याकाण्डके नामपर अपनी ' निजी स्मृतीया 'इन अंग्रेज धर्मप्रचारकोंने लिखकर फैला दी; उनसे बढकर हीन, घृणित दुष्ट और सफेत झूठका प्रचार करनेका साहस अबतक किसीने नही दिखाया होगा | जो राष्ट्र् अपने नागरिको को ये साफ झूठ बाते, कि " अंग्रेज स्त्रियोंको दिल्लीके मार्गोमे नगी घुमायी गयी; उनपर खुलेमे बलात्कार किया गया| उनके स्तन काटे गये और अंग्रेज कुमारी लडकियो पर भी बलात्कार हुए," बोलनेकी छूट देता है, वह राष्ट सत्यका कहा तक आदर कर सकते है,इसकी सहजमें कल्पना कर सकते है। १८५७ की क्रांति इस लिए नही हूई कि हिंदी लोग अंग्रेज महिलाओंको चाहते थे(यो तो चकलेमे उन्हे मिल जातीं) बल्कि भारतसे इन गोरोकी हस्ती मिटानेके लिए यह क्रांति थी|

हॉ तो, मेरठके बाज़ारमे गॉवकी स्त्रियोंने ताना मार कर जो बवडर खडा किया था, उसने एक शतीतक ह्ढमूल बने पराधीनताके विषवृक्षको एक साथ जडमूलसे उखाड दिया| इन पाँच दिनोमे क्रांतिदलको जो असाधारण यश मिलता गया, उसका कारण था, पराधीनतापर कुठाराघात करनेको सब जातियो तथा सब प्र्वृत्तिके लोग आगे आये थे| मेरठकी औरतोंसे लेकर दिल्लीके सम्राटतक हर एकके अंतस्तलमे स्वधर्मरक्षा तथा स्वराज्य पानेकी लगन लगी थी| इस तीव्र इच्छाको गुप्त क्रांतिकारी सस्थाओने आवश्यक रूप दे रखा था; इसीसे केवल पॉचही दिनोमे स्वराज्य का झण्डा हिदुस्थानके केन्द्र-दिल्ली-मे फहर सका|१३ मईको दिल्लीमें अंग्रेजी सत्ताका छोटासा भी चिन्ह नही रह पाया था|अंग्रेजोंके लिए द्वेष इतनी पराकाष्ठापर पहुँचा था कि यदि भूलसे किसीके मुहसे अंग्रेजी शब्द निकल जाय तो निर्दयतासे उसे रगेढा जाता|'यूनियन जक'की धज्जिया लोग मार्गमें चलते कुचलते थे, जहा वह स्वराज्यका विजयी ध्वज, जिससे पराधीनताके ढाग उष्णरत्तसे साफ़ धोये गये थे, बडी शानसे लहरा रहा था|स्वाधीनताका प्रेम इतना उमड आया था कि इन पाँच दिनोमें समस्त दिल्लिनगरमें एक भी राष्ट्घातक नराघम नही पाया गया|स्त्रीपुरूष, गरीब धनी, बूढे जवान,सैनिक नागरिक, मौलवी पण्डित, हिदू मुसलमान सबके सब स्वदेशके झण्डेके नीचे जमा होकर विदेशी