पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१६२

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प्रत्फोट] [द्वितीय खड कि इस अचानक उत्थानसे लाभ उठाया जाय, या, पहलेसे निश्चित ३१ मईतक रुका जाय ? केद्रीय-क्रांति-कार्यालयने क्या निश्चित किया था? हाँ, अन्य केंद्रोमें यदि अपनी ही इच्छासे विद्रोह हो तो क्या मेरट विद्रोहके कारण पैदा हुई गडबडीका उन्हे सामना न करना पड़ेगा? मे ही कुछ प्रश्रोंपर हर केन्द्र के नेता उबेडबुनमें पड़े थे और निश्चय न होनेमे चुप रहे । अनिश्चय, अस्थिरतामे बढकर क्रांतिको मारनेवाला दूसरा कोई विष नहीं है। "जितना वेग तथा सार्वदेशिक फैलाव अधिक हो, कातिकी मफलताकी सम्भावना भी अधिक होती है। पहले हमलेके घाट व्यर्थ समय गंवाग जाय और शत्रुको दम लेने की फुरसद मिले तो उसे अनायास अपना सगठन हद करनेका अवसर मिल जाता है। सपने पहले विद्रोह करनेवाले जब देखते है कि उनके बाद कोई मैदानम नहीं आता. नो वह हिम्मत हारने लगते है; और धूर्त गनु भी सचेत होकर नये विद्रोहियोंके मार्गम रोडे अटकाता जाता है। इससे, पहला हमला और जातिका सर्वत्र फेलाव इसके दरमियान शत्रुको सिद्धता करनेका अवकाश देना, सटाही कातिक लिए हानिप्रद होता है। किन्तु यहाँ ठीक वही हुआ जो न होना चाहिय। पहलेसे निश्चित कार्यक्रमके विरुद्ध इस अचानक उत्थानसे अन्य स्थान कातिदलके नेता भौचक्के हो गये और कुछ समय के लिए ' भयी गति खॉप छछूटर केरी ।' चुप कैसे रहे और नहीं तो उत्थान कैसे करे। __ कातिदलमें पैदा हुई यह अनिवार्य निष्क्रियता अंग्रेजोंके लिए अत्यत लाभकारी सिद्ध हुई । भारतमें पॉव धरनेसे लेकर आजतक ऐसा सुन्न कर देनेवाला भयकर सवाद सुननेकी बारी यह पहलीही थी। जिन सैनिकोने अग्रेजोकी सत्ता आजतक बढाकर उसे बनाये रखनेमें सहायता दी वेही सैनिक आज अंग्रेजोकी जानके ग्राहक बने थे। इस दृग्यसे घबडा कर अग्रेजी सत्ता मेरठसे दिल्ली भाग खडी हुई। पर वहॉ बादशहाने एक हायसे उसका गला दबोचकर दूसरे हाथसे उसका राजमुकुट छीन लिया। वह अग्रेजी राजसत्ता, जिसके मुंहपर मेरठके चौराहेकी स्त्रियों थूकी और जिसके राजमुकुट आदि सभी अलंकार लोगोंने बलपूर्वक छीन लिए थे तथा तलवारोंके धानोंसे लहूलुहान हुई थी, अंग्रेजी खूनसे लथपथ अपने