पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१७१

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. अध्याय ४ था] १३५ [विष्कम तथा पजाब--काण्ड लड़ाई नहीं, एक मुठभेड के लिए आवश्यक बल अन्न उनमे नहीं उचा है। दिनाक १ जूनको, पहलेही पस्त हुए अंग्रेजोकं पडावकी पिछाडीपर एक सेनादल चढ आता दिखायी पडा । काले सैनिकोका यह दल देख कर अग्रेजोंके छक्के छूट गये। फिरभी आत्मरक्षाके हेतु सम्हलकर खडे हो ही रहे थे कि पता चला, यह झातिकारियोकी सेना नहीं, वरंच मेजर रोडके नेतृत्वम गोरखा-सैनिक-दल है। अम्बालेकी अंग्रेज सेनाको सिक्खोंने सहायता दी, तो मेरटकी गोरी सेनाकी सहायताके लिए गोरखे दौड आये। अब वेचारे दिल्लीके कातिकारी क्या कर सकते है ? ये दोनो अग्रेजी सेनाएँ ७ जूनको मिली । साथम नाभा नरेशकी सहायतासे बनी, मुहासरेका काम करनेवाली कपनी आ पहुँची। जब यह कपनी अवाले पहुँचेगी तो उसपर टूट पडनेकी प्रार्थना पाचवी पलटनके सिपाही गोरखा सैनिकोंसे कर रहे थे, किन्तु गोरखोने स्वधर्म या स्वदेशकी सेवा करनेसे साफ, इनकार कर दिया और यह घेरा-दल दिल्ली आ पहुँचा । अग्रेजोकी सयुक्त सेना अब निःशक होकर अलीपुर तक पहुँच गयी। अग्रेजी सेनाके अलीपुर जातेही कातिकारी सेना दिल्लीसे फिर निकली और बुदेलकी सरायके पास अग्रेजोपर हमला किया। अंग्रेजी सेना पूर्णतया सुसगठित थी। आवश्यक तोपचियोंसे युक्त तोपखाना, युद्धोपयोगी सामग्री, कार्यक्रुशल प्रमुख अधिकारीगण, अनगिनत नये पर्याप्त सैनिक एव बचाव तथा आक्रमणके लिए सुविधाजनक युद्धक्षेत्र आदि किसी बातकी कमी अग्रेजोको न थी, जहाँ एक पवित्र साधनाबलके बिना कातिकारियोंके पक्षमें और कुछ नहीं था। उनका नेता एक नरेश था किन्तु आयुभरमे उसने लडाई कभी न देखी थी। कातिढलमे शिक्षित सैनिकोकी अपेक्षा ऐरेगैरेही अधिक, थे और उपरसे अपने ही देशवधु सिक्ख तथा गोरखे शत्रकी सहायता कर रहे थे, यह सब सोचकर उनका दिल बैठ गया। इधर अग्रेजोने ठान ली थी कि ' यह लड़ाई एक दर्शनीय तमाशा होगा।' किन्त स्वराज्यकी अत्युच्च साधनासे सैनिकोंके हृदयमे ऐसी कुछ दिव्य स्फूर्ति तथा ऐसा अनाखा जीवट प्रेरित था. कि इन सभी अडचनोको उन्होने खिलवाड माना । उस दिन कातिकारियोंने वे जौहर दिखाये, कि अंग्रेजोको जॅच