पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१७२

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प्रस्फोट] (द्वितीय वड गया कि " यह लडाई एक दर्शनीय तमाशा नहीं, बल्कि यह सचमुच भयकर तथा प्राणोंका सट्टा है। दिल्ली के तोपचियोंने अंग्रेज नोपोंके मुंह बट कर दिये । गोरे तोपची तथा उनके गोरे अधिकारी एक के बाद एक खतम होने लगे तत्र दिल्लीकी तोपोंने और ही आग उगलना शुरू किया। तत्र तो अग्रेजोने पैटल सेनाको तोपखानेपर ही चढ़ाई करनेकी आजा दी । वे ठेठ तोपों तथा युद्ध द्रव्यागार पर ही टूट पडे, किन्तु कातिल टमस मस न हुआ। स्वधर्म और स्वराज्यके इस युद्ध में ये क्रांतिकारी सच्चे वीर की तरह इट गये और अंग्रेजी मगीनें उनके भगरोस आरपार निकल जानतक वे अपनी जगहमे न हटे। इन दुदैवी वीरवरोंके माथ रहकर धीरज बंधानेबाला एक भी नेता होता, तो उन्हें किसी प्रथप्रदर्शन की आवश्यकता नहीं थी। क्यों कि, अग्रेजी सगीनांस देहकी छलनी बननपर भी, स्वधर्म और स्वराज्यपर निछावर होनेवाले ये वीर रचभी न हटे, जहाँ इन के 'सिपहसालार' तोपको पहली ही गटगटाहटके साथ दिल्लीको बहादुरीसे भाग गये थे । ऐसे अवसरपर इस अभागी मेनाके बायें पासपर अंग्रेजी घुडदलने तथा पिछाडीपर होस ग्रेट की गाडीचढी तोपोने हमला किया, तत्र, अपना तथा परायोसे सताये गये तथा दिनभर की लड़ाईसे थके हुए सैनिक हार गये, उनकी पाती टूट गयी और उन्हे दिल्लीको लौटना पड़ा। सेनापति बनडिने विजयको पक्की करने के लिए अंग्रेजी सेनाको और बात चले जानकी आजा दी, तत्र गोरी सेना दिल्ली के सरक्षक तट तक पहुंच गयी। आजकी लडाईका परिणाम यह निकला कि अब दिल्ली के आमपासके टापू परसे कातिकारियोका काबू उखड गया और गोरोको दिल्लीके किलेपर ही सीधे हमला करनेके अनुकूल आक्रमणभूमि अनायास मिल गयी। यहाँ एक बात कहना उचित है, कि सीमूरके नेतृत्व में अत्यत वीरतासे लडे गोरग्वा कंपनीका गुणगान अंग्रेज इतिहासकागेने विशेष रूपमे किया है। क्यो कि, अपनीही माताके पुत्रोकी गर्दन काटनेमें अत्यधिक उत्साह तथा वीरता दिखानमें आनद माननेवाले गोरखाका शौर्य तथा निष्ठा अग्रेजोंने बार बार अवानी है। ब्रटेल की सरायकी लडाई गोरखाके बलपर अग्रेजोंने जीती किन्तु इससे उनका भ्रम भी दूर हो गया। क्यो कि, रातमें दिल्ली के अदर प्रवेश