पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१७३

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अध्याय ४ था] १३७ [विष्कम तथा पजाव-काण्ड कर अपने कट्टर शत्रुको लहूसे नहलानेके स्वप्न पूरे चूर चूर हो गये। इस लढाईने इस कटु सत्यका अनुभव अग्रेजोको कराया कि क्रातिकारी सेना कोई गैरो का जमघट नहीं है। स्वधर्म और स्वराज्यकी रक्षाके हेतु म्यानसे बाहर पडी तथा सात्विक क्रोधका पानी चढी तलवारे दिल्लीकी किलाबदीपर चमकती थी। इस लडाईमे अग्रेजोके चार अफसर और ४७ मैनिक खेत रहे, घायलोकी सख्या १३० तक पहुँची थी। किन्तु उनकी छावनीम जिस 'बातसे दुःख तथा निराशाकी गादी घटा छा गयी थी, वह थी अॅडज्युटट जनरल कर्नल चेस्टरकी मौत । पाठक अनुभव करेंगे कि ये अग्रेज इति हासकार ऋातिदलकी हानिका वर्णन करनेमें कभी कभी अतिशयोक्ति में उपन्यास को भी मात कर देते है। यहाँ बताना आवश्यक है कि उस दिनके घमासान युद्ध में झातिकारियोकी तोपोकी हानिको बताते हुए एक ग्रंथकार तेरहकी सख्या देता है, जहाँ दुसरा उनकी संख्या छब्बीस होने की बात दावेसे कहता है। और बात यह है कि ये दोनों प्रथकार सैनिक अधिकारीके नाते उस लडाई में स्वय उपस्थित थे। हाँ, तो ८ जून के सायकाल, दिल्लीकी किलाबदीको अग्रेजी सैनिकोंने घेरा डाल दिया। अम्बाला और मेरठसे सेनाको सुरक्षित ले आना बडी मात्राम पजाबकी हालतपर अवलत्रित था। इससे मेरठके विद्रोहका उस प्रातपर क्या प्रभाव पड़ा, वहाँके राष्ट्रीय विचारके लोगोंने उससे क्या लाभ उठाया और उनकी गतिविधि क्या रही तथा उनके विरुद्ध अग्रेजोंने कौनसी चालें चली और उन्हें कहाँतक सफलता मिली इन बातोंको देखना आवश्यक है। सिक्खोंका साम्राज्य नष्ट होकर जब पजाबपर अग्रेजोका अधिकार हुआ तब उस प्रातमें लाई डलहौसीने ऐसी नीति जारी की, जिससे स्वातत्र्यकी आकाक्षा तथा क्षात्रवृत्ति सिक्खोके इन दोनो प्रभावशाली गुणाका पूरा नाश हुआ। इस नये लूटे हुए प्रांतकी बागडोर जब सर हेन्री लारेन्स और सर जॉन लॉरेन्सके हाथ आयी तो उनका पहला कदम था लोगोको निहत्थे करना और सिक्खोंको अग्रेजी सेनामें भरती करना। फिर उन्होंने उत्तर भारतकी अधिकाग गोरी सेनाको पजाबमें रख दिया। इस तरहसे सब ओरसे दबाये जानेसे जनताको पेट पालनेके लिए खेती पर ही निमर रहना पड़ा, दूसरा कोई चाराही न रहा । राष्ट्रकी जनशक्ति जब