पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१७४

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प्रस्फोट] १३८ द्वितीय खड । केवल खेतीबाडी ही मे मगन रहती है, तब, स्पष्ट है कि उस राष्ट्रको भात्रवत्ति धीरे धीरे लोप हो जाती है। लोगोको 'शान्ति' का युग अच्छा लगता है। खेतीम खलल पैदा होती हों तो क्रांतिके कामामे सहजमें, हाय बॅटानेकी चेष्टा नहीं करते । अग्रेजोके इस अतिकुटिल राजनैतिक सिद्धातने पजाबमें बड़ी सफलता पायी। सिक्खोका साम्राज्य नष्ट होनेसे दशवर्षांक अदर बहुसख्य सिक्ख समाज अपनी तलवारोको पूर्णतया भूलकर, हल जोतनेमे अपना गौरव समझने लगा; जिन थोडे सिक्खोके पास अब तक शस्त्र था उसे उन्होने अपनेही देशबधुओका नाश करनेके लिए अग्रेजांके सुपुर्द कर दिया। इस तरह पहलेही पूरा बदोबस्त हो चुका था। पजाबम किसी तरहका ऊधम होनेकी रच भी सम्भावना न होनेका विश्वास सर जॉन लॉरेन्सको हो गया था। अन्य अंग्रेजी अधिकारियोके समान उसे भी मई के प्रारंभ तक आगामी भीषण संकटकी जरा भी कल्पना न थी। धूपकालके लिए लाहौरसे मसूरीकी ठढी पहाडोकी सैर करनका उसका विचार पक्का था। इसी समय मेरट और दिल्लीके संवादोसे पजाब भी थरा गया। इन सवादोमे भरे भयकर और गभीर अर्थको चतुर अंग्रेजोने झट भॉप लिया और विदेशी साम्राज्यको उखाडनेकी चेष्टा करनेवालोका सामना करनेके लिए सिद्ध होकर अपना मसूरी जानेका विचार उसने छोड दिया । पजाबी सेनाका बड़ा भारी हिस्सा इस समय मियामीरमे था। मियाँमीर की छावनी लाहौरके बहुत पास होनेसे लाहौरके किलेकी रक्षाके कामपर सबके सब हिंदी सिपाही तैनात हुए थे। मियामीरकी छावनीम हिंदी सैनिक सख्याम गोरे सैनिकोसे लगभग चौगने थे फिर भी मेरठ के बलवेका सवाद मिलने तक अंग्रेजोको हिंदी सैनिकोपर जराभी सदेह न हुआ। किन्तु उस खबरके पहुंचते ही, हर हिंदी सैनिकपर शक होने लगा कि कहीं वह अपने मेरठी भाइयो के गुप्त पडयत्रमे शामिल तो नही है। लाहौर की सेनाका सरदार था रॉबर्ट मतगॉमरी। सर जॉन लॉरेन्स और रॉबर्ट मॉतगॉमेरी दोनों अतिशय धेर्यशील तथा सयमशील थे। किसी भी भयकर अनपेक्षित अडचनमे उनकी समयकी सूझ सराहनीय थी। इस समय पजाबके सैनिकोंमे राष्ट्रीय स्वातन्यकी लहरका क्या प्रभाव पडा था इसको टटोलना ठीक होगा। अग्रेजोंने सिपाहियोकी मनोगतिको