पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१७७

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अध्याय ४ था] १४१ [विकम तथा पजाब-काण्ड गाइड कोर | जॉन लारेन्सको डलीके शौर्य तथा अमतापर विशेष भरोसा था, जिससे गाइड-कोरका नेतृत्व कर दिल्लीपर चढ़ जानेकी उसे आज्ञा दी। बडे वेगसे मार्ग तय करते हुए अपनी सेनाके साथ डॅली बुटेलकी सरायको वहॉकी मिडन्तके दूसरे दिन, पहचा। दिल्लीको घेरनेमे अब दो देशद्रोही पलटनें जमा हुई थी । एक वीड के नेतृत्वमे लडनवाली गोरखा पलटन तथा लीके नतृत्वमे लडनवाली पजाबी पलटन । ये दोनें पलटने अग्रेजोंकी बड़ी प्यारी थी: और कौन कह सकता है कि यह प्यार अयोग्य था? देशद्रोहियाकी नमकहरामी-मात्राको मापनपर अंग्रजांक धारको वे सर्वथा क्यो न पात्र हो ? डलीकी पलटन दिल्लीको रवाना होनेपर सर जॉन लॉरेन्सन पजाबकी राजनैतिक स्थितिकी फिर एकबार बारीक छानवीन की । इस प्रातम हिदुमुसलमान’ तथा सिक्खाम कट्टर शत्रता सदा धुधुवाती रहती थी । उत्तर । भारतके समान यहाँ भी हिंदु-मुसलमानोम राजनैतिक एकताके भाव जागरित होना अत्यंत आवश्यक था। इसका महत्त्व पजाब-निवासी अब तक समझ न सके थे। ऐसे तो उनकी स्वाधीनताका अन्त होकर दस सालभी पूरे नही हुए थे। किन्तु १८४९ मे जो सिक्ख अपनी तलवारे अग्रेजोंकी गर्दन रेतनेके लिए समरागणमे जुट जाते थे, वे ही सिक्ख आज १८५७में अग्रेजोंसे लिपटकर नाच रहे थे। इस अजीब ऐतिहासिक रहस्यका स्पष्ट कारण यह था कि, सिक्खोके स्वाधीनता गॅवानेको थोडाही समय बीता था, कि १८५७ की क्राति फूट पडी । खालसा गुरुके शूर बाँके इन अनुयायियोंने मुसलमानी गुलामीसे इतना तीन द्वेप किया, जिसके कारण एक शतीतक लगातार मसलमानोसे लडाइयों की। अर्थात् इन्ही सिख्खोने अग्रजी सत्ताका सच्चा स्वरूप पहचाना होता तो, निश्चित बात है, कि वे अग्रेजी हुकमत को क्षणभरभी टिकने न देते। किन्तु ' अग्रेजी सत्ता याने सो टका गुलामी' यह विचार इन अज्ञ वीरोके अतःकरणपर पूर्णरूपसे अकित होनेके पहलेही, १८५७की क्राति फूट पड़ी। भारतीय राजनीतिमें जब एक अनोखी क्राति करवट ले रही थी उसी समय अग्रेजोकी गुलामी की नजीर भारतके पावोंमें जकडी जा रही थी। सदियोंसे कोनमे सडते हुए राष्ट्रीय जीवनके कई सोते अपने बॉधोको तोडकर एक महानदी में मिल रहे थे। यह महानदी