पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१८१

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अध्याय १४५ [विष्कम तथा पजाब-काण्ड गुप्तरूपसे बनत जोरोसे होता था तब लखनऊकी एक गुप्त सस्थाने काबुलके अमीरसे सहायताकी प्रार्थना की थी! १८५५ मे फॉरसीथके हाथ लगे एक पत्रसे यह निःसदेह कहा जा सकता है कि लखनकके मुसलमान अमीर दोस्त मुहम्मदसे सबंध जोडनेमे मगन थे। उस पत्रमे लिखा है: "अवधपर तो अब दखल हो चुका, हैदराबातकी भी वही गत होगी, तब मुसलमानी आधिपत्यके नामपर कुछ भी न बचेगा। समयपर ही इसका इलाज होना चाहिये। यदि स्वराज्यके लिए लखनऊ के लोग बलवा करे तब,अमीरसाहब, हम आपसे किस प्रकारकी सहायतापर भरोसा रख सकते है ?" लखनऊके इस पत्रके उत्तरमे राजनीतिज्ञ अमीरने इतनाही कहा कि उसपर विचार होगा। किन्तु काबुलके अमीरसे इग्लैंडने पहलेही मित्रता की सधि कर ली थी। अमीर से अधिक पेशावरके पास मुसलमानी गिरोहो का ही भय अग्रेजोंको लगता था इस सीमोत्तर प्रदेशमे कुछ मुल्लाओ को भेज दिया गया। इनका काम था, उन गोलियोंमें उस विचार को फैला देना कि अग्रेजो के विरुद्ध विद्रोह न किया जाय! पेशावरके पास होनेवाले सभी अंग्रेज अफसर सबके सब धैर्यशील, राजनीतिज्ञ तथा मॅजे हुए सिपाहीथे उन्होंने इस आगामी सक्टको भॉप लिया और बडे कष्ट उठाकर ही जॉन लॉरेन्सके पटू निकल्सन, एडवर्डस् तथा चेम्बरलेन, इन अग्रेज अफसरोने तुरन्त इलाज कर उस सकटको टाला । पहले उन्होने उन पठानोके गिरोहोको अपनी सेनामें भरती करनेकी ठानी ! ये पठान पैसेके लालची होते है, इस लिए अंग्रेजोंने उन्हें रिश्वत देना चाहा । इस तरह इन गिरोहोंको खरीद कर पजाबमें ध्रुधवाती अशान्तिको दबानेके लिए इनकी गश्ती पलटन बनाया। पेशावरके साहसी गोरे अफसरोंने पहली चोट करनेकी दृष्टि से सैनिकोको निःशस्त्र करनेका दॉव किया। किन्तु अंग्रेज सेनानी तथा अन्य सेनाधिकारियोंको अपनी पलटनोंके सिपाहियोंपर लदे जानेवाले अपमानक बारम बडा दुख होता रहता था। कारण यही था, कि १८५७की कातिका संगठन इतने गुप्तरूपसे किया गया था कि गोरे अफ्सर भरोसा नहीं कर सकते थे कि उनके मातहत कोई क्रातिदलके सिपाही होंगे फिर भी कॉटन