पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२१

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भारतीय बंधुओं को कराने में मुझे स्थान मिला, जिस से मैं मेरा 'जन्म सफल समझता हूँ। तेीप्त वर्ष की आयु ही क्या होती है? पर असी आयु में पूज्य सावरकरजीने यह पुस्तक लिखकर हिंदुस्थान की अभूतपूर्व सेवा की है। स्व. लोकमान्य टिलकीने ' अितिहास छात्र वृत्ति। के लिये सावरकरजी के विषय में क्रांतिकारियों के भीष्म स्व. पं, शामजी कृष्ण वर्मा को अनुरोध कर भारतीय राष्ट्र का सदा के लिये अपकार किया है, जिस से इर कोसी सहमत होगा, जो मिस ग्रथ को समझ कर पढेगा। ब्रिटिश म्यूजियम में संरक्षित सरकारी तथा अन्य पत्रों तथा संलेखों की अलमारियाँ भरी पडी हैं। अनकी छानबीन कर राष्ट्रीय दृष्टि से हमारे देश के महान् संघर्ष का प्रामाणिक अितिहास तो जिस ग्रंथ में हमी है-वही असका मेक अद्देश है-किन्तु रूखी और गभीर भाषा की क्लिष्टता से अपनी पण्डिताभी की छाप लोगों के मनपर लगाने के लिओ सावरकरजीने यह ग्रंथ नहीं लिखा। स्वतंत्रता के महान यज्ञ को प्रत्यक्ष करने के लिओ मिस मंत्रदृष्टाने यह गाथा गायी है। क्यों कि, सावरकरजी सर्वप्रथम कवि ह, फिर असाधारण वक्ता, लब्धप्रतिष्ठ लेखक, दूरदृष्टि राजनैतिक संत हैं। प्रितिहास की कथा को काव्यपूर्ण भाषा में अन्हें। ने लिखा है। अपन्यास के समान मुललित, मनोहारी। और अिस से मैंने कहा, कि मैने धृष्टता की है : अस काव्य को, व्यग को, अस ओज को, राष्ट्रीय स्वातंत्र्य की लगन को यदि मैं अभिव्यजित न कर पाया हूँ, तो पाठक मेरी घोर निंदा करेंगे। और मैं पहले से यह पार्थना कर छुटकारा नहीं पाता, कि ' मेरा प्रथम प्रयत्न होने से क्षमाशील पाठकगाण मेरे दोषों की क्षमा कर दें। यदि मुझसे अन महान विचारों का वइन अच्छी तरह नहीं बना हो, तो मुझे निदा को सिर आँखों पर रखना चाहिये; यदि मैं बहुत अंशों में सफल हुआ हूँ, तो प्रशंसा को नम्रता के साथ ग्रहण करना चाहिये।