पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२१३

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अध्याय ७ वॉ] १७५ [काशी और प्रयाग मात्र कारण तुम्ही हो और ऊपरसे हमें पढाने आये हो ?" जनक्षोभ का इस तरह ज्वलन्त प्रमाण मिलनेपर अग्रेजो के दिलोमें ऐसा डर समाया कि बलवा होने के पहले ही बनारस छोड जानेका आग्रह कॅ. आल्फर्टस् और कॅ. वॅटसन् गोरोंसे करने लगे। तब गबिनस्ने गिडगिडाकर कहा " मैं तुम्हारे पाँव पडता हूँ; क्रितु कृपया इस समय बनारस छोडेने की बात न सोचो ।” तिसपर कागी छोडने का विचार कुछ समयके लिए स्थगित रहा ।। और हाँ, अत्र नगरमे रहनेभी क्या भय था ? क्यों कि, सिक्खोंने अग्रेजों की रक्षा का मार उठानेके लिए स्वयहि एक स्वयसैनिकटल जो संगठित किया था ! और जिनको वॉरन हेस्टिगजने ठोकरोंसे उडाया था उसी चेतसिगके वगज ही तो अग्रेजोंकी ढाल बने है न ? अबतक भी इस तरह 'राजनिष्ठा मे उफान आता था, तब भला बनारस को छोड जाने की अग्रेजोंको क्या आवश्यकता थी ? आजमगढ बनारससे ६० मीलकी दूरीपर है। वहाँ १७वी हिंदी पलटन थी। मई ३१ से इसमे भीषण गर्जनाएँ उठ रही थी। __ आजमगढमें ३ जूनको, रातका अधकार चुपकीसे आक्रमण कर रहा था। हिंदी पलटनके गोरे अधिकारी, सब मिलकर क्लबम खाना खा रहे थे, उनके बालबच्चे आसपास खेल कुदम मगन थे । सहसा भयकर गडबडीकी आवाज उनके कानपर पड़ी। जूनके पहले सप्ताहसे ऐसी गडबडीकी आवाजका मतलब अच्छीतरह उन्हें परिचित था। उनके नाचरग, खानेपीनेके मनोरजनके कार्यक्रमके लिए इकठे हुओमे एकाएक सन्नाटा छा गया । आपसमें कानाफूसी हुई 'कहीं सिपाही तो नहीं उठे है ?" इसी समय ढोल तथा तुरहियोकी भयसूचक गभीर ध्वनि सुनायी दी । मेरठ के प्रसंगको याद कर हर एक गोरा अपनी जान बचानेके लिए इधर उधर दौडने लगा। अफसर, औरतें तथा बच्चे तो अपने प्राणोंकी आशाही छोड बैठे; किन्तु जमराजको प्रत्यक्ष देखकर भी न होनेवाली तिलमिलाहट उन अभागोंमें देखकर सिपाहियोंने प्रतिशोधका खयाल अपने मनसे निकाल दिया और कोई अनकटोटा उन्हे आकर न सताये इस लिए उन्हे आश्वासन देकर आजमगढसे चले जानेको कहा। किन्तु, अब उन अति उत्साही कातिवीरोंको कैसे समझाएँ, जिन्होंने अग्रेजी खून,