पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२१६

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प्रस्फोट] १७८ [द्वितीय खेर अंग्रेजोको भय हुआ कि कहीं सिक्ख तो क्रांतिकारियोंसे मिल नहीं गये ! और इसी अपसमझ (गलतफहमी) के कारण गोरोंने तोपखानेसे सबको भुन डाला। इस प्रसगमें अभागे सिक्खोंको क्रांतिकारियोंसे मिलनेके बिना कोई चारा ही न था। तब सब मिल गये और उन्होंने तीन बार तोपचियोंपर धावा बोला । १८५७में यही एक अवसर था जब हिंदू, मुसलमान तथा सिक्ख सब मिलकर अग्रेजोंपर टूट पड़े थे। किन्तु इसी समय इस पापका प्रायश्चित्त करनेका अनथक जतन सिक्खोंद्वारा हो रहा था। अग्रेजोंके साथ क्रांतिकारियोंकी यह लडाई बारिकोंके पासही हो रही थी, तब गांववालेभी उठनेका भय था । इस डरसे अग्रेज अफसर तथा उनके बालबच्चे इधर उधर भाग रहे थे। तब सरदार सुरतसिंग उनकी रक्षाके लिए दौड पडा। अनारसके खजानेमे लाखों रुपयोंके साथ साथ अग्रेजोंसे लुटे हुए सिक्खोंकी रानीके कीमती अलकार भी थे; और इस खजानकी रक्षा अग्रेजोंके लिए, सिक्खही कर रहे थे। भूलसे भी यह विचार सिक्ख सैनिकोके मस्तिष्कमें आनेकी सम्भावना न थी कि अपनी निर्वासित रानीके अलकार, खजानेपर दखलकर, लौटा लिए जायें ! राजनिष्ठ सूरतसिंगने खजानेको ऑच न पढ़ेंचानेका उपदेश अपने धर्मबंधुओंको दिया और फिर सिक्खोंकी जगह गोरे सनिक तैनात हुए। इस समय कोई पडित गोकुलचद अग्रेजोंका पक्षपाती अना था। इस विप्लवमें काशीके राजाने अपना प्रभाव, सपत्ति तथा सत्ता मब कुछ अपने प्रभुके-काशी विश्वनाथके नहीं, अग्रेजोंके-चरणोमें चढा दिया था। केवल कातिकारी सैनिक अकेले तोपखाने की आगकी पर्वाह न करते हए लडते रहे और लडते लडते ही हटकर प्रातभर में फैल गये। बनारसकी सिक्ख पलटनके जो सैनिक जौनपुर में थे वे तो तुरन्त क्रांतिकारियोंके साथ हुए और नगरभरमे कातिकी ज्योति फैल गयी। यह देख जॉइट मॅजिस्ट्रेट कपेज लोगोंको भाषण देने खडा हो गया, तो श्रोताओंसेउनकी वक्तृताकी कद्र थी वह !-एक गोली सनसन करती आयी और मॅजिस्ट्रेट साहब वहीं ढेर हो पडे । कमांडर ले. मारा भी दूसरी गोलीका शिकार बना ! इसके बाद क्रातिकारियोंने खजानेपर धावा बोला और अग्रेजोको जौनपुरले 'चले जाओ' की आज्ञा दी। इतनेमे बनारससे रिसालभी वहाँ पहुँच गया। उसने तो हर गोरे को मार डालनेकी प्रतिज्ञा